एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार की ऐतिहासिक पहल और संविधान की चुनौतियाँ


एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार की ऐतिहासिक पहल और संविधान की चुनौतियाँ

 एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार की ऐतिहासिक पहल और संविधान की चुनौतियाँ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में ‘एक देश, एक चुनाव’ को अमलीजामा पहनाने की दिशा में गंभीर कदम उठाने की योजना बनाई है। यह अवधारणा, जिसके तहत लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने की बात की जा रही है, मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में प्रमुख स्थान रखती है। इसके पीछे सरकार का तर्क है कि बार-बार चुनावों के कारण देश की प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है और चुनावी प्रक्रियाओं के चलते विकास योजनाओं को पूरा करना मुश्किल हो जाता है।

संविधान में संशोधन की आवश्यकता

‘एक देश, एक चुनाव’ की योजना को लागू करने के लिए संविधान में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए जाने की आवश्यकता होगी। मौजूदा संविधान की संरचना के अनुसार, लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, और इसका कार्यकाल भी अलग-अलग होता है। इस योजना के तहत, संविधान में किए जाने वाले प्रमुख संशोधन निम्नलिखित हैं:

  1. अनुच्छेद 83: वर्तमान में लोकसभा का कार्यकाल पांच साल तक होता है और इसे केवल एक बार, एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। इस अनुच्छेद में बदलाव की आवश्यकता होगी ताकि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकें।

  2. अनुच्छेद 85: राष्ट्रपति को समय से पहले लोकसभा भंग करने का अधिकार है। इस प्रावधान को संशोधित करना होगा ताकि चुनावों को एक साथ आयोजित किया जा सके।

  3. अनुच्छेद 172: विधानसभा का कार्यकाल भी पांच साल का होता है और इसे एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। इसे भी एकसाथ चुनावों के अनुरूप बनाने के लिए संशोधित किया जाना होगा।

  4. अनुच्छेद 174: राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार है। इस प्रावधान में भी संशोधन की आवश्यकता होगी।

  5. अनुच्छेद 356: यह अनुच्छेद किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान करता है। इसके संशोधन की आवश्यकता होगी ताकि एक साथ चुनावों के प्रबंधन में कोई दिक्कत न आए।

इन संशोधनों के लिए संसद में एक बिल लाया जाएगा जिसे दोनों सदनों - लोकसभा और राज्यसभा - में पास करवाना होगा। इसके बाद, इसे कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से भी अनुमोदित करवाना होगा। अंततः, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही यह बिल कानून का रूप ले सकेगा।

राजनीतिक समर्थन और विरोध

‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाना एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी। वर्तमान एनडीए गठबंधन में बीजेपी के साथ-साथ कुछ सहयोगी दल जैसे जेडीयू और एलजेपी (आर) इसके समर्थन में हैं। जेडीयू और एलजेपी (आर) ने इसे समय और संसाधनों की बचत के दृष्टिकोण से उचित बताया है। हालांकि, टीडीपी ने इस पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी है।इसके विपरीत, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, सीपीएम और बसपा जैसी प्रमुख पार्टियों ने इस योजना का विरोध किया है। इन पार्टियों का तर्क है कि इससे संविधान की मूल संरचना को नुकसान पहुँच सकता है और यह राज्यों की स्वायत्तता को भी प्रभावित कर सकता है। कुछ दलों ने तो इस पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी, जिससे स्पष्ट राजनीतिक तस्वीर उभरने में मुश्किलें आई हैं।पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति ने इस मुद्दे पर 62 राजनीतिक पार्टियों से संपर्क किया था। इनमें से 32 ने इस योजना का समर्थन किया था, जबकि 15 पार्टियों ने इसका विरोध किया और 15 पार्टियों ने कोई जवाब नहीं दिया।

संवैधानिक और कानूनी प्रक्रिया

संविधान संशोधन के लिए, संसद को 368वें अनुच्छेद के तहत संशोधन करने की अनुमति है, लेकिन इसका यह भी मतलब है कि संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुँचाया जा सकता। ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रस्तावित संशोधनों को संविधान के मूल ढांचे से जोड़कर ही लागू किया जाएगा।

आगे की राह

यदि मोदी सरकार वास्तव में इस योजना को अमलीजामा पहनाना चाहती है, तो उसे कई कानूनी और संवैधानिक बाधाओं का सामना करना होगा। सबसे पहले, इस योजना के लिए संसद में एक बिल लाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। लोकसभा में इस बिल को पास कराने के लिए कम से कम 362 और राज्यसभा में 163 सदस्यों का समर्थन आवश्यक होगा।इसके बाद, इस बिल को कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदित करवाना होगा। यदि राज्यों की विधानसभाएं इस बिल को स्वीकृति प्रदान करती हैं, तो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही यह बिल कानून बन सकेगा।

‘एक देश, एक चुनाव’ की योजना भारतीय राजनीतिक प्रणाली में एक बड़ा बदलाव लाने की संभावना को जन्म देती है। हालांकि, इसे लागू करने के लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधनों और राजनीतिक समर्थन को प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिल और चुनौतीपूर्ण होगी। भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मोदी सरकार इस योजना को सफलतापूर्वक लागू करने में सक्षम होती है, या यह एक प्रस्तावित योजना ही बनी रहती है। इस मुद्दे पर राजनीतिक और कानूनी बातचीत जारी रहना तय है, और इसके परिणाम देश की राजनीतिक और चुनावी प्रणाली पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं।

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