ममता सरकार फिर कटघरे में, कोलकाता गैंगरेप केस ने मचाई भूचाल, महिला मुख्यमंत्री की चुप्पी पर उठे सवाल

ममता सरकार फिर कटघरे में, कोलकाता गैंगरेप केस ने मचाई भूचाल, महिला मुख्यमंत्री की चुप्पी पर उठे सवाल

ममता सरकार फिर कटघरे में, कोलकाता गैंगरेप केस ने मचाई भूचाल, महिला मुख्यमंत्री की चुप्पी पर उठे सवाल

कोलकाता एक बार फिर शर्मसार है। कानून, संविधान और सत्ता के गठजोड़ के बीच इंसाफ की चीख गूंज रही है, लेकिन सत्ता के गलियारों में सन्नाटा पसरा है। कोलकाता के न्यू टाउन इलाके में 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुई सामूहिक दुष्कर्म की घटना ने न सिर्फ राज्य प्रशासन को कठघरे में खड़ा कर दिया है, बल्कि एक महिला मुख्यमंत्री की जवाबदेही पर भी तीखे सवाल खड़े कर दिए हैं। यह कोई पहली घटना नहीं है। संदेशखाली और आरजी कर कांड की तपिश अभी शांत नहीं हुई थी कि एक और दरिंदगी ने ममता सरकार की नैतिकता को झकझोर दिया। कहने को तो पश्चिम बंगाल देश का प्रगतिशील राज्य माना जाता है, लेकिन हालिया घटनाएं बताती हैं कि यहां महिलाएं असुरक्षित हैं। और जब किसी राज्य की कमान एक महिला के हाथों में हो, तब उम्मीद की जाती है कि ऐसे मामलों पर त्वरित और कठोर कार्रवाई होगी। लेकिन ममता बनर्जी की खामोशी अब बोझ बनती जा रही है। तीन बड़े मामलों में उनकी प्रतिक्रिया लगभग न के बराबर रही है, और यही बात आमजन के मन में गुस्सा और अविश्वास को जन्म दे रही है।

न्यू टाउन गैंगरेप केस की बात करें तो घटना के बाद पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में है। पीड़िता की मां का आरोप है कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में टालमटोल किया और जब दर्ज की, तब तक आरोपी फरार हो चुके थे। राज्य महिला आयोग तक ने बयान देने से इनकार कर दिया। और ममता बनर्जी? उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला। यही चुप्पी आज सत्ता की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है।इससे पहले जनवरी 2024 में संदेशखाली कांड ने राज्य की कानून व्यवस्था की पोल खोल दी थी। वहां तृणमूल नेताओं पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न और ज़मीन पर कब्ज़े के गंभीर आरोप लगे थे। महिलाएं सामने आईं, दर्द सुनाया, लेकिन सरकार ने मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की। हाईकोर्ट की फटकार के बाद भी प्रशासन की भूमिका संदिग्ध बनी रही। यही नहीं, आरजी कर मेडिकल कॉलेज की छात्रा के साथ हुई हैवानियत ने पूरे बंगाल को हिला दिया था। सुप्रीम कोर्ट तक को दखल देना पड़ा। सरकार ने दिखावे के लिए एसआईटी बनाई, लेकिन कार्रवाई सिर्फ कागज़ों में सिमट कर रह गई।

तीनों मामलों में एक समानता है  सत्ता की चुप्पी और प्रशासन की निष्क्रियता। अब सवाल ये उठता है कि जब देश में महिला सुरक्षा के लिए सख्त कानून मौजूद हैं, तो कार्रवाई क्यों नहीं होती? क्या संविधान और कानून सिर्फ दिखावे की चीज़ हैं? क्या न्याय प्रणाली केवल अमीरों और रसूखदारों के लिए है? जब आम जनता के साथ अत्याचार होता है, तो हर दल कानून की दुहाई देने लगता है, लेकिन इंसाफ की जमीन पर कोई खड़ा नजर नहीं आता।राजनीतिक दलों के लिए संविधान एक ढाल बन गया है। हर बलात्कार के बाद वही घिसा-पिटा बयान “कानून अपना काम करेगा”, “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा”। लेकिन जब आरोपी सत्ता से जुड़े होते हैं, तो कानून कुर्सी की चरणवंदना करने लगता है। यही बंगाल की जनता देख रही है और यही उनकी नाराज़गी का कारण बन रहा है।

न्यायपालिका की ओर देखें तो हालात और भी चिंताजनक हैं। रेप और महिला अत्याचार के 48,000 से ज्यादा केस देश में पेंडिंग हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट की बातें खूब होती हैं, लेकिन अदालतों में तारीख़ पर तारीख़ ही मिलती है। जिस देश में आतंकी याकूब मेनन को फांसी देने में सालों लग जाते हैं, वहाँ एक आम लड़की को इंसाफ कब मिलेगा, इसका कोई जवाब नहीं है।अब सवाल उठता है कि क्या ममता बनर्जी का महिला होना ही उनके लिए बोझ बन गया है? क्या जनता की अपेक्षाएं उन्हें असहज कर रही हैं? ममता बनर्जी को अपनी छवि को लेकर सजग रहना होगा। जब वे सड़क पर संघर्ष करती थीं, तब जनता ने उन्हें ‘दीदी’ का दर्जा दिया। लेकिन आज वही दीदी, एक बेटी के साथ हुए अत्याचार पर चुप हैं। क्या उनकी संवेदना सत्ता की दीवारों में कैद हो गई है?

टीएमसी के भीतर भी घमासान शुरू हो चुका है। पार्टी की महिला मोर्चा की नेता ही सरकार से सवाल पूछ रही हैं। सोशल मीडिया पर ‘दीदी, ये चुप्पी आपकी नहीं हो सकती’ जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। युवा नेता और समर्थक पार्टी की खामोशी से नाराज़ हैं। ये स्पष्ट संकेत है कि ममता सरकार अब सिर्फ विपक्ष से नहीं, अपनों से भी घिरी हुई है।जानकारों का कहना है कि ममता की सबसे बड़ी ताकत  उनका महिला नेतृत्व  अब उनकी सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। जनता उनसे व्यक्तिगत जवाबदेही चाहती है। लेकिन जब हर बार वे चुप रह जाती हैं, तो जनता का भरोसा टूटता है। यही भरोसा राजनीतिक पतन की शुरुआत करता है।

कानून और संविधान की दुहाई देने वाले नेताओं को यह समझना होगा कि कागज़ी प्रावधानों से जनता की पीड़ा दूर नहीं होती। कानून की ताकत तब नजर आती है जब वह सत्ता के दबाव में नहीं, जनता की भावनाओं के अनुरूप काम करे। लेकिन आज संविधान और कानून सिर्फ भाषणों की शोभा बनकर रह गए हैं।ममता सरकार को चाहिए कि वो इन मामलों की निष्पक्ष जांच कराए, दोषियों को कड़ी सज़ा दिलवाए और खुद सामने आकर जनता को भरोसा दिलाए। नहीं तो आने वाले चुनाव में जनता उन्हें भी उसी कठघरे में खड़ा करेगी, जहाँ आज वो विपक्ष को खड़ा करती हैं। एक मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी को समझना होगा कि चुप रहना विकल्प नहीं है, बल्कि कायरता की निशानी है। और जब बात बेटियों की हो, तो ये चुप्पी पाप बन जाती है।

बंगाल आज सवाल पूछ रहा है  क्या बेटियां सिर्फ नारे और पोस्टर की शोभा बनकर रह जाएंगी? क्या कानून का हाथ सिर्फ कमजोरों की गर्दन पर ही चलेगा? और सबसे बड़ा सवाल  क्या एक महिला मुख्यमंत्री भी इस देश में महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती?इसलिए अब वक्त आ गया है कि संविधान, कानून और सत्ता तीनों एक मंच पर आएं और दिखाएं कि न्याय अब सिर्फ किताबों में नहीं, जमीनी हकीकत भी बन चुका है। वरना जनता इस व्यवस्था को नकारने में देर नहीं करेगी।


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