बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले एनडीए में सीट बंटवारे पर सहमति बनती दिख रही है। भाजपा और जदयू के बीच लगभग बराबर सीटों का फार्मूला तय होने की चर्चा है, जबकि छोटे दलों को भी उनके प्रभाव क्षेत्रों के अनुसार उचित हिस्सेदारी मिलने की संभावना है। अमित शाह के बिहार दौरे के दौरान सीट बंटवारे का ऐलान हो सकता है, जो गठबंधन की एकजुटता और चुनावी रणनीति का बड़ा संदेश देगा।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 : एनडीए में सीट बंटवारे पर सहमति की आहट, अमित शाह के दौरे से तय होगा समीकरण
ग्लोबल हिंदी न्यूज़
बिहार विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। चुनाव आयोग कभी भी आचार संहिता लागू कर सकता है और उससे पहले राज्य की सियासत में सबसे बड़ा सवाल यही है कि किस गठबंधन का सीट बंटवारे का फार्मूला पहले सामने आएगा। महागठबंधन और एनडीए दोनों खेमों में बातचीत चल रही है, लेकिन अभी तक किसी भी गठबंधन ने आधिकारिक तौर पर सीटों का बंटवारा घोषित नहीं किया है। इस बीच एनडीए के भीतर से जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि भाजपा और जदयू के बीच लगभग बराबर सीटों पर सहमति बनने की स्थिति में हैं और छोटे दलों को भी उनके प्रभाव क्षेत्रों के हिसाब से उचित हिस्सेदारी दी जा सकती है।बिहार की राजनीति में सीट बंटवारा हमेशा से बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है। पिछली बार के चुनाव में भी एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों की खींचतान लंबे समय तक चली थी। लेकिन इस बार परिस्थितियाँ कुछ अलग हैं। नीतीश कुमार के महागठबंधन से नाता तोड़कर भाजपा के साथ आने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। ऐसे में भाजपा और जदयू दोनों के लिए यह परीक्षा है कि वे मतदाताओं के बीच एकजुटता का कितना मजबूत संदेश दे पाते हैं। यही वजह है कि दोनों दलों के शीर्ष नेता लगातार बातचीत में हैं और संकेत यही मिल रहे हैं कि भाजपा और जदयू को लगभग 102–103 सीटें दी जा सकती हैं।
छोटे घटक दलों के लिए भी इस बार जगह निकालने की कोशिश की जा रही है। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एनडीए का तीसरा सबसे बड़ा सहयोगी माना जा रहा है और उन्हें करीब 20–22 सीटें दिए जाने की संभावना जताई जा रही है। जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को लगभग आठ सीटों पर दावेदारी मिल सकती है, जबकि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के लिए भी सात से नौ सीटों का प्रावधान माना जा रहा है। इस तरह एनडीए के भीतर यह संदेश देने की कोशिश है कि छोटे दलों को दरकिनार नहीं किया जाएगा बल्कि उन्हें भी बराबरी का महत्व दिया जाएगा।नीतीश कुमार की राजनीति का एक बड़ा आधार यही रहा है कि वे छोटे दलों को साथ लेकर चलने की कला जानते हैं। इस बार भी वे चाहेंगे कि लोजपा (रामविलास), हम और आरएलएसपी जैसी ताकतें गठबंधन में बने रहें ताकि विपक्ष को यह कहने का मौका न मिले कि भाजपा और जदयू केवल अपने-अपने हित साध रहे हैं। वहीं भाजपा भी यह चाहती है कि केंद्र से लेकर राज्य तक एनडीए की छवि एक समावेशी गठबंधन की बने, जो सभी जातियों और तबकों का प्रतिनिधित्व करता हो।
अमित शाह का बिहार दौरा इस पूरे समीकरण का सबसे अहम हिस्सा माना जा रहा है। कयास यही हैं कि उनके दौरे के दौरान सीट बंटवारे का आधिकारिक ऐलान हो सकता है। शाह न केवल भाजपा के केंद्रीय रणनीतिकार हैं बल्कि जदयू के साथ तालमेल बनाने में भी उनकी भूमिका अहम है। अगर उनके सामने एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों पर सहमति बन जाती है तो यह संदेश जाएगा कि गठबंधन पूरी तरह चुनाव के लिए तैयार है और विपक्ष को कड़ा मुकाबला देने की स्थिति में है।बिहार की राजनीति में इस बार का चुनाव कई मायनों में अलग है। एक तरफ राजद और कांग्रेस के बीच तालमेल को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है, वहीं महागठबंधन के अन्य दलों में भी असंतोष की आवाजें उठ रही हैं। दूसरी तरफ एनडीए इस बार यह दिखाने में सफल होना चाहता है कि उसके भीतर कोई मतभेद नहीं है। यही वजह है कि सीट बंटवारे की बातचीत को जल्द से जल्द अंतिम रूप देने का दबाव बढ़ गया है।
जानकार मानते हैं कि अगर भाजपा और जदयू बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो यह संतुलन का संदेश देगा। पिछली बार के चुनाव में भाजपा को ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन अब नीतीश कुमार की वापसी के बाद जदयू का दावा भी उतना ही मजबूत हो गया है। अगर दोनों दल 102–103 सीटों पर समझौता कर लेते हैं तो इससे गठबंधन के भीतर संतुलन और भरोसे का माहौल बनेगा।बिहार की सामाजिक संरचना को देखते हुए सीट बंटवारा केवल राजनीतिक गणित नहीं है बल्कि जातीय समीकरणों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। एनडीए यह जानता है कि अगर वह यादव, मुस्लिम और दलित वोट बैंक को पूरी तरह विपक्ष के हवाले छोड़ देगा तो चुनावी लड़ाई कठिन हो जाएगी। इसलिए चिराग पासवान को पर्याप्त सीटें देना दलित वर्ग को साधने की रणनीति है। जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के लिए सीटें सुरक्षित करना भी इसी रणनीति का हिस्सा है ताकि महादलित और कुशवाहा वोटर एनडीए के साथ बने रहें।
इसके साथ ही भाजपा और जदयू दोनों के लिए यह जरूरी है कि वे सवर्ण और ओबीसी वोट बैंक को भी एकजुट रखें। भाजपा परंपरागत रूप से सवर्ण और शहरी वर्ग में मजबूत रही है, जबकि जदयू का आधार ग्रामीण इलाकों और पिछड़े वर्गों में रहा है। अगर सीट बंटवारे में दोनों दलों को बराबर-बराबर हिस्सेदारी मिलती है तो यह संदेश जाएगा कि दोनों अपने-अपने आधार वोट को एकजुट करने के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं।चुनावी दृष्टि से देखा जाए तो सीमांचल का इलाका इस बार भी सबसे अहम साबित होगा। मुस्लिम बहुल जिलों में एनडीए को अपने उम्मीदवारों का चयन सोच-समझकर करना होगा। जदयू के पास वहां कुछ पकड़ है, लेकिन भाजपा की छवि अभी भी उस वर्ग में स्वीकार्यता पाने के लिए संघर्ष कर रही है। इसलिए सीट बंटवारे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सीमांचल की कितनी सीटें जदयू को दी जाती हैं और कितनी भाजपा अपने खाते में रखती है।
नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव उनकी राजनीतिक विरासत का भी सवाल है। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन अब जब वे भाजपा के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतर रहे हैं, तो उनके लिए यह साबित करना जरूरी होगा कि वे अभी भी बिहार की राजनीति में सबसे अहम चेहरा हैं। भाजपा के लिए भी यह चुनाव कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। उसे यह दिखाना होगा कि नीतीश कुमार के साथ रहते हुए भी वह राज्य की सबसे बड़ी ताकत है और अकेले दम पर सरकार बनाने की क्षमता रखती है।एनडीए के भीतर जो सहमति बनती दिख रही है, उसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति खत्म होगी। अगर सीट बंटवारे की घोषणा आचार संहिता से पहले हो जाती है तो इससे यह संदेश जाएगा कि गठबंधन पूरी तरह तैयार है और अब उसका ध्यान केवल चुनाव प्रचार पर केंद्रित है। इसके उलट अगर देरी होती है तो विपक्ष को यह कहने का मौका मिलेगा कि एनडीए अभी भी आंतरिक खींचतान से जूझ रहा है।
चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार के मतदाता गठबंधन की एकजुटता को बहुत गंभीरता से लेते हैं। अगर भाजपा और जदयू के बीच तनातनी की खबरें आती हैं तो इसका सीधा असर वोट बैंक पर पड़ता है। इसी कारण इस बार दोनों दलों ने शुरुआत से ही यह कोशिश की है कि सीट बंटवारे को विवाद का कारण न बनने दिया जाए। अमित शाह के दौरे के बाद जब यह घोषणा होगी, तब यह साफ हो जाएगा कि बिहार की राजनीति में एनडीए किस रणनीति के साथ उतरने जा रहा है। इस घोषणा का असर केवल गठबंधन की आंतरिक मजबूती तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि यह विपक्ष को भी चुनौती देगा कि वे अपने पाले में खड़े दलों को लेकर कितनी मजबूती दिखा पाते हैं।
बहरहाल, बिहार की सियासत में यह सीट बंटवारा सिर्फ एक चुनावी औपचारिकता नहीं है। यह एक तरह से नए समीकरणों की शुरुआत है, जिसमें भाजपा और जदयू को बराबरी पर लाकर खड़ा किया जाएगा, छोटे दलों को सम्मानजनक हिस्सेदारी दी जाएगी और यह संदेश दिया जाएगा कि एनडीए पूरे दमखम के साथ मैदान में है। चुनाव की गहमागहमी के बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि यह रणनीति मतदाताओं को कितना आकर्षित कर पाती है और विपक्ष इसके जवाब में किस तरह की चाल चलता है।
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