कांशीराम जयंती पर मायावती सक्रिय मिशन 2027 से बसपा ने PDA और विपक्ष को सियासी चुनौती दी

9 अक्टूबर, कांशीराम जयंती पर मायावती ने ‘मिशन 2027’ की औपचारिक शुरुआत की। बसपा पुनर्जागरण अभियान के तहत दलित-पिछड़ा-मुस्लिम समीकरण को मजबूत किया जा रहा है। बूथ स्तर पर संगठन को सक्रिय कर पुराने और युवा नेताओं की वापसी हुई। मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है और PDA तथा विपक्षी दलों को स्पष्ट सियासी संदेश दिया। पंचायत चुनाव को सियासी प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करते हुए बसपा 2027 विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है।


कांशीराम जयंती पर मायावती सक्रिय मिशन 2027 से बसपा ने PDA और विपक्ष को सियासी चुनौती दी

हिंदी ग्लोबल न्यूज़

लखनऊ: उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी हाथी की मजबूत चाल से सत्ता की राहें तय करने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) आज अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। 2022 के विधानसभा चुनाव में महज एक सीट और 2024 के लोकसभा चुनाव में खाता तक न खुल पाना बसपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं। पार्टी का वोट शेयर 9.39 फीसदी तक सिमट गया और दलित समुदाय का एक बड़ा हिस्सा, खासकर गैर-जाटव और अतिपिछड़ा वर्ग, अन्य दलों की ओर खिसक गया। लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने हार नहीं मानी। वह एक बार फिर पुराने जोश और नई रणनीति के साथ मैदान में उतर चुकी हैं। उनका मिशन है 2027 का विधानसभा चुनाव, जिसे वह 'करो या मरो' की जंग मान रही हैं। मायावती की कोशिश है कि बसपा को फिर से उसकी खोई हुई ताकत मिले और उत्तर प्रदेश की सियासत में वह त्रिकोणीय मुकाबले का हिस्सा बन सके।

मायावती की नजर इस बार गांव-गांव की सियासत पर है। वह जानती हैं कि उत्तर प्रदेश में सत्ता का रास्ता गांवों से होकर गुजरता है। यही वजह है कि बसपा ने 2026 के पंचायत चुनाव को अपनी सियासी प्रयोगशाला बनाना शुरू कर दिया है। मायावती ने लखनऊ में डेरा डाल रखा है और लगातार पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें कर रही हैं। उनकी रणनीति साफ है दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वोटों को एकजुट कर बसपा के पुराने गौरव को वापस लाना। इसके लिए वह बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करने में जुटी हैं। पार्टी के कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर कैडर कैंप लगा रहे हैं, छोटी-छोटी सभाएं कर रहे हैं और पुराने नेताओं की घर वापसी करा रहे हैं। इस रणनीति का असर अब धीरे-धीरे जमीन पर दिखने लगा है।

मायावती ने 9 अक्टूबर को बसपा के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि को 'मिशन 2027' की औपचारिक शुरुआत के रूप में चुना है। लखनऊ के वीआईपी रोड स्थित कांशीराम स्मारक स्थल पर इस दिन एक भव्य रैली का आयोजन होगा। इस रैली के जरिए मायावती न सिर्फ अपने समर्थकों को एकजुट करना चाहती हैं, बल्कि विपक्षी दलों को यह संदेश भी देना चाहती हैं कि बसपा अभी खत्म नहीं हुई है। इस रैली में पुराने नेताओं की वापसी और नई रणनीति की घोषणा होने की संभावना है। मायावती का यह कदम सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है।

बसपा की ताकत हमेशा से उसका दलित वोट बैंक रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में इस वोट बैंक में सेंध लगी है। 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा सपा-कांग्रेस के 'इंडिया' गठबंधन की ओर खिसक गया। खासकर गैर-जाटव दलित और मुस्लिम समुदाय में बसपा की पकड़ कमजोर हुई है। मायावती इसे अच्छी तरह समझ रही हैं। इसलिए उनकी रणनीति में इस बार दलितों के साथ-साथ अतिपिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय को जोड़ने पर खास जोर है। पार्टी के बड़े नेता और कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर बूथ स्तर पर बैठकें कर रहे हैं। इन बैठकों में न सिर्फ दलित वोटरों को एकजुट करने की कोशिश हो रही है, बल्कि अतिपिछड़े और मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी बसपा के साथ जोड़ा जा रहा है।

मायावती की रणनीति में इस बार गोपनीयता और व्यवस्थित तरीके से काम करने की खासियत है। वह बिना शोर-शराबे के अपनी तैयारियों को अंजाम दे रही हैं। पार्टी ने पंचायत चुनाव को अपनी सियासी ताकत को पुनर्जनन का मौका माना है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर नेताओं को सक्रिय करने और नए चेहरों को मौका देने का फैसला लिया गया है। बसपा के मंडल कोऑर्डिनेटर और जिलाध्यक्ष गांव-गांव जाकर सदस्यता अभियान चला रहे हैं। इस अभियान के तहत न केवल पुराने कार्यकर्ताओं को फिर से जोड़ा जा रहा है, बल्कि अन्य दलों के असंतुष्ट नेताओं को भी बसपा में शामिल किया जा रहा है।

पार्टी के लिए एक और बड़ा बदलाव आकाश आनंद की वापसी है। मायावती के भतीजे आकाश आनंद को फिर से राष्ट्रीय संयोजक बनाया गया है और उनकी सक्रियता से कार्यकर्ताओं में नया जोश आया है। आकाश की सियासी वापसी के साथ ही उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को भी पार्टी में वापस लाया गया है। यह कदम बसपा के संगठन को मजबूत करने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। आकाश आनंद को युवा नेतृत्व के रूप में आगे बढ़ाया जा रहा है, जो सोशल मीडिया और युवाओं के बीच बसपा की पहुंच बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

मायावती की रणनीति में 2007 का वह फॉर्मूला भी शामिल है, जिसके जरिए उन्होंने दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम समीकरण बनाकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इस बार वह दलित-पिछड़ा-मुस्लिम समीकरण पर फोकस कर रही हैं। यह वही फॉर्मूला है, जिसे सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में 'पीडीए' (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) के नाम से अपनाकर बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी। मायावती अब इसी समीकरण को अपने पक्ष में करने की कोशिश में हैं। अगर वह इसमें कामयाब हो जाती हैं, तो सपा के लिए सबसे बड़ी सियासी चुनौती खड़ी हो सकती है। सपा प्रवक्ता मोहम्मद आजम का कहना है कि मायावती की सियासी प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है और दलित, ओबीसी व मुस्लिम समुदाय उनकी बजाय सपा के साथ है। लेकिन मायावती इस दावे को गलत साबित करने के लिए पूरी ताकत झोंक रही हैं।

बसपा की राह आसान नहीं है। 2012 के बाद से पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे गिरा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में एकमात्र सीट और 2024 के लोकसभा चुनाव में शून्य सीट ने पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। इसके अलावा चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) भी बसपा के दलित वोट बैंक में सेंध लगा रही है। नगीना लोकसभा सीट पर चंद्रशेखर की जीत ने उनके हौसले बुलंद किए हैं। ऐसे में मायावती के लिए अपने कोर वोट बैंक को वापस लाना और नए समीकरण बनाना बड़ी चुनौती है।

मायावती ने यह भी साफ कर दिया है कि वह किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगी और अकेले दम पर चुनाव लड़ेंगी। यह फैसला उनकी सियासी रणनीति को और महत्वपूर्ण बना देता है। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गठबंधन के दौर में अकेले चुनाव लड़ना बसपा के लिए जोखिम भरा हो सकता है। लेकिन मायावती का भरोसा उनकी जमीनी रणनीति और कार्यकर्ताओं की मेहनत पर है। वह मानती हैं कि अगर दलित, पिछड़ा और मुस्लिम वोटर एक बार फिर बसपा के साथ आ गए, तो पार्टी न सिर्फ अपनी खोई जमीन वापस पा सकती है, बल्कि सत्ता की दौड़ में भी शामिल हो सकती है।

पंचायत चुनाव में बसपा की रणनीति उम्मीदवारों के चयन में सामाजिक समीकरणों पर खास ध्यान देना है। पार्टी ने पिछड़े वर्ग और मुस्लिम समुदाय के नेताओं को टिकट देने का फैसला किया है। इसके अलावा बूथ स्तर पर कमेटियों का गठन और कार्यकर्ताओं की सक्रियता बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। मायावती का मानना है कि अगर पंचायत चुनाव में बसपा अच्छा प्रदर्शन करती है, तो यह 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए मजबूत आधार तैयार करेगा।

उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा की वापसी आसान नहीं होगी, लेकिन मायावती की जिद और रणनीति को कम आंकना भी ठीक नहीं। वह एक बार फिर अपने पुराने अंदाज में सक्रिय हो चुकी हैं। गांव-गांव में कार्यकर्ताओं की मेहनत, पुराने नेताओं की वापसी और आकाश आनंद जैसे युवा चेहरों का उभार बसपा को नई ताकत दे सकता है। अगर मायावती अपनी रणनीति में कामयाब हो जाती हैं, तो 2027 का चुनाव न सिर्फ बीजेपी और सपा के बीच का मुकाबला होगा, बल्कि बसपा की चाल इसे त्रिकोणीय जंग में बदल सकती है। अब देखना यह है कि क्या मायावती का 'मिशन 2027' उत्तर प्रदेश की सियासत में नया इतिहास रचेगा या फिर बसपा को और मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

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