नेपाल से फ्रांस-जापान तक जनता सड़कों पर क्यों पूरी दुनिया में उबल रहा है असंतोष?

नेपाल में Gen-Z आंदोलन ने सरकार को झकझोर दिया और फ्रांस, जापान, थाईलैंड, इंडोनेशिया समेत दुनिया के कई देशों में जनता सड़कों पर उतर रही है। भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और असंतोष की वजह से उठ रहे ये आंदोलन वैश्विक लोकतंत्र के लिए सवाल खड़े कर रहे हैं।

नेपाल से फ्रांस-जापान तक जनता सड़कों पर क्यों पूरी दुनिया में उबल रहा है असंतोष?

नेपाल से फ्रांस-जापान तक जनता सड़कों पर क्यों पूरी दुनिया में उबल रहा है असंतोष?

हिंदी ग्लोबल न्यूज़

नेपाल की सड़कों पर धुंधला धुआं छा गया है, नारे गूंज रहे हैं और गुस्से का लावा उफान पर है। सरकार ने झुकना स्वीकार कर लिया, सोशल मीडिया पर लगा प्रतिबंध हट गया, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया और दस मंत्रियों ने भी कुर्सी छोड़ दी, लेकिन युवाओं का आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा। 'जनरेशन-जेड रिवॉल्यूशन' के नाम से मशहूर यह आंदोलन अब भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पारदर्शिता की कमी के खिलाफ एक बड़ी जंग बन चुका है। नेपाल में यह उथल-पुथल नई नहीं है, लेकिन इस बार यह आग सिर्फ हिमालय की तलहटी तक सीमित नहीं रह गई। दुनिया के कई कोनों में ऐसी ही अस्थिरता की चिंगारियां सुलग रही हैं। फ्रांस, जापान, थाईलैंड, इंडोनेशिया से लेकर माली, सूडान और लेबनान तक, हर देश की कहानी अलग है, लेकिन दर्द एक जैसा ही लगता है। आइए, गहराई से देखें कि आखिर ये देश इस आग में क्यों जल रहे हैं और नेपाल का हाल क्यों इतना बेहाल हो गया है।

नेपाल में यह आग अगस्त 2025 में भड़की, जब सरकार ने फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब और एक्स जैसे 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार का दावा था कि ये प्लेटफॉर्म्स ने नेपाल के कानून के तहत रजिस्ट्रेशन नहीं कराया था। लेकिन यह कदम युवाओं को चुभ गया। उनके लिए सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति, पहचान और आजादी का प्रतीक है। काठमांडू की सड़कों पर हजारों युवा उतर आए। प्रदर्शन उग्र हो गए, संसद भवन घेर लिया गया, तोड़फोड़ हुई, आगजनी हुई और पुलिस की गोलीबारी में करीब 19 लोगों की जान चली गई। हालात बेकाबू होते देख सरकार ने प्रतिबंध हटा लिया, लेकिन तब तक आंदोलन भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे गहरे मुद्दों पर पहुंच चुका था। प्रदर्शनकारियों ने ओली के इस्तीफे की मांग की, और आखिरकार 9 सितंबर 2025 को ओली को पद छोड़ना पड़ा। डिप्टी सीएम समेत दस मंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया, लेकिन युवा अब भी सड़कों पर हैं। उनका कहना है कि यह सिर्फ प्रतिबंध हटाने की बात नहीं, बल्कि सिस्टम में बदलाव की लड़ाई है। एनडीटीवी की रिपोर्ट्स के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों ने ओली के निजी आवास को आग लगा दी और संसद भवन पर हमला किया, जबकि द गार्डियन ने बताया कि 19 मौतों के बाद सेना को सड़कों पर उतारना पड़ा।

नेपाल का यह संकट कोई अकेला नहीं है। भारत के पड़ोसी देशों में हाल के वर्षों में ऐसी कई घटनाएं घटी हैं, जिन्होंने दक्षिण एशिया की स्थिरता को हिला दिया। बांग्लादेश में मई 2024 से शुरू हुए प्रदर्शनों ने शेख हसीना की सरकार को उखाड़ फेंका। अवामी लीग और उसके छात्र संगठन पर दमनकारी नीतियों का आरोप लगाते हुए जनता सड़कों पर उतरी। हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए, और आखिरकार हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा। पाकिस्तान में मई 2023 में इमरान खान की गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थकों ने सड़कों पर हंगामा मचाया। सरकारी इमारतों और सेना के ठिकानों पर हमले हुए, और हालात इतने बेकाबू हुए कि इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। श्रीलंका में 2022 का आर्थिक संकट आज भी लोगों के जेहन में है। बिजली कटौती, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता ने राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। म्यांमार में 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद से ही जनता लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ रही है। आंग सान सू की जेल में हैं, और प्रदर्शनकारियों पर सैन्य दमन जारी है। इन सभी देशों में एक समानता है- जनता का गुस्सा, जो भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट और अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदियों के खिलाफ फूट रहा है। अल जजीरा की रिपोर्ट्स के अनुसार, बांग्लादेश में हसीना की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन अवामी लीग के छात्र संगठन पर दमन के आरोपों से भड़के, जबकि एनपीआर ने पाकिस्तान में इमरान की गिरफ्तारी के बाद हमलों का जिक्र किया। श्रीलंका में अर्गलाया आंदोलन ने राजपक्षे को भागने पर मजबूर किया, जैसा कि यूएसआईपी ने बताया।

लेकिन यह आग दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं है। यूरोप के ताकतवर देश फ्रांस में भी राजनीतिक अस्थिरता का बोलबाला है। पिछले तीन सालों में यहां चार बार प्रधानमंत्री बदल चुके हैं। हाल ही में फ्रांस्वा बायरो ने नौ महीने के कार्यकाल के बाद इस्तीफा दे दिया। इसका कारण संसद में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलना है। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की लोकप्रियता में 15 प्रतिशत की गिरावट आई है। आर्थिक सुधारों के नाम पर बजट कटौती, सार्वजनिक सेवाओं में कमी और राष्ट्रीय अवकाशों की संख्या घटाने जैसे कदमों ने जनता में असंतोष पैदा किया है। विपक्ष बार-बार अविश्वास प्रस्ताव ला रहा है, और मैक्रों के लिए नया प्रधानमंत्री चुनना किसी जंग से कम नहीं। एनबीसी न्यूज के अनुसार, बायरो का अविश्वास प्रस्ताव विपक्षी दलों ने पास कराया, जबकि अल जजीरा ने मैक्रों की लोकप्रियता को 15 प्रतिशत बताया। फ्रांस जैसे देश में यह अस्थिरता लोकतंत्र की चुनौतियों का सबूत है कि ये किसी एक महाद्वीप तक सीमित नहीं हैं।

जापान में हालात कुछ अलग नहीं हैं। यहां 70 साल तक सत्ताधारी रही लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) को हाल के चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा। प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा को इस्तीफा देना पड़ा। आर्थिक चुनौतियां, धीमी विकास दर और सरकार की असफलताओं ने जनता का भरोसा तोड़ दिया। अब साने ताकाइची और शिंजिरो कोइजुमी जैसे नेताओं को एलडीपी का भविष्य संभालने की जिम्मेदारी दी जा रही है, लेकिन जनता का गुस्सा शांत होना मुश्किल लग रहा है। जापान की यह हार इसलिए भी अहम है, क्योंकि यह देश दशकों तक राजनीतिक स्थिरता का प्रतीक रहा था। रॉयटर्स के अनुसार, इशिबा ने चुनाव हार के बाद इस्तीफा दे दिया, जबकि अल जजीरा ने एलडीपी की हार को ऐतिहासिक बताया।

थाईलैंड में शिनावात्रा परिवार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने नया बवाल खड़ा कर दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री थाकसिन शिनावात्रा को भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का दोषी ठहराया गया, और उनकी बेटी पेटोंगटार्न शिनावात्रा को भी अयोग्य घोषित कर दिया गया। इससे जनता में गुस्सा भड़क उठा, और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। थाईलैंड की राजनीति में शिनावात्रा परिवार का प्रभाव लंबे समय से रहा है, लेकिन सैन्य और राजशाही समर्थक ताकतों के साथ उनकी खींचतान ने देश को अस्थिरता की ओर धकेल दिया। वर्तमान में चार्नविराकुल सत्ता संभाल रहे हैं, लेकिन संसद में बंटवारा और विपक्ष की ताकत ने हालात को जटिल बना दिया है। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, कोर्ट ने पेटोंगटार्न को पद से हटा दिया, जबकि द गार्डियन ने हन सेन के साथ फोन कॉल को नैतिक उल्लंघन बताया।

इंडोनेशिया में राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो के सामने आर्थिक सुधारों का इम्तिहान है। हाल ही में वैट को 11 से 12 फीसदी करने का फैसला जनता को रास नहीं आया। महंगाई बढ़ी, और जकार्ता में संसद का घेराव कर लिया गया। प्रदर्शन इतने उग्र हुए कि पुलिस को आंसू गैस और बल प्रयोग करना पड़ा। प्रबोवो ने स्थिति को कुछ हद तक संभाला, लेकिन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव की धमकी ने उनके लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। द गार्डियन के अनुसार, प्रबोवो ने सांसदों की सुविधाओं को काटने का ऐलान किया, जबकि अल जजीरा ने वैट बढ़ोतरी पर विरोध का जिक्र किया।

अफ्रीका और मिडिल ईस्ट में भी हालात कम चिंताजनक नहीं हैं। माली में मई 2025 से सैन्य तानाशाही के खिलाफ प्रदर्शन जारी हैं। लोग लोकतांत्रिक सुधारों की मांग कर रहे हैं। सूडान और डी.आर. कॉन्गो में गृहयुद्ध, आतंकवाद और जातीय हिंसा ने लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया है। लेबनान में आर्थिक संकट और वित्तीय सुधारों को लेकर असंतोष बढ़ रहा है। मंगोलिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शनों ने प्रधानमंत्री एर्डेन को इस्तीफा देने पर मजबूर किया, लेकिन स्थिति अब भी तनावपूर्ण है। आर्मेनिया में विपक्षी नेताओं और चर्च के धर्मगुरुओं की गिरफ्तारी ने जनता का गुस्सा भड़का दिया है। रॉयटर्स के अनुसार, माली में राजनीतिक दलों को भंग कर दिया गया, जबकि अल जजीरा ने आर्मेनिया में गिरफ्तारियों का जिक्र किया।इन सभी देशों की कहानियां अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन मूल कारण एक ही है- जनता का अपनी सरकारों से भरोसा उठ चुका है। भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदियां और सत्ता का दुरुपयोग- ये वो मुद्दे हैं, जो दुनिया भर में लोगों को सड़कों पर ला रहे हैं। नेपाल में 'जनरेशन-जेड रिवॉल्यूशन' ने सरकार को हिलाकर रख दिया, और यह आंदोलन दक्षिण एशिया के अन्य देशों जैसे श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार की याद दिलाता है। इन देशों में युवाओं ने सत्ता को चुनौती दी और कई मामलों में उसे उखाड़ फेंका।

भारत के लिए यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार इसके पड़ोसी हैं। इन देशों में अस्थिरता भारत की सीमा सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित कर सकती है। विश्लेषकों का मानना है कि इन प्रदर्शनों के पीछे आंतरिक कारण ही नहीं, बल्कि बाहरी ताकतों का दखल भी हो सकता है। नेपाल में प्रदर्शनकारियों ने चीनी नेताओं के पोस्टर फाड़े, जिससे साफ है कि जनता अब विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ भी खड़ी हो रही है।दुनिया भर में यह उथल-पुथल एक बड़ा सवाल खड़ा करती है- क्या लोकतंत्र अपनी राह से भटक रहा है? नेपाल में युवाओं का गुस्सा, फ्रांस में संसद का गतिरोध, जापान में सत्ताधारी पार्टी की हार, थाईलैंड में न्यायपालिका और सत्ता का टकराव, और इंडोनेशिया में आर्थिक सुधारों का विरोध- ये सभी घटनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि जनता अब अपनी आवाज को दबने नहीं देना चाहती। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये आंदोलन स्थायी बदलाव ला पाएंगे, या फिर ये सिर्फ अस्थिरता का नया दौर शुरू करेंगे? समय ही इसका जवाब देगा।

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