“Your Kids vs Their Kids”: भारतीय राजनीति में वंशवाद का सच


  

“Your Kids vs Their Kids”: भारतीय राजनीति में वंशवाद का सच

हिंदी ग्लोबल न्यूज़

भारतीय लोकतंत्र का दावा है कि यह सबके लिए समान अवसरों वाला मंच है, जहाँ हर नागरिक को अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफलता का मौका मिलता है। लेकिन सच्चाई अक्सर इसके उलट नज़र आती है। राजनीति में चुनावी टिकट और सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का रास्ता अक्सर मेहनत और संघर्ष से नहीं, बल्कि परिवार और खानदान से होकर गुजरता है। हाल ही में कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक वीडियो साझा किया, जिसमें उन्होंने भाजपा नेताओं के बच्चों पर तंज कसते हुए “Your Kids vs Their Kids” का नारा दिया। उनका कहना था कि आम नागरिकों के बच्चे बेरोज़गारी और संघर्ष में पिसते हैं, जबकि सत्ता के बच्चों के लिए रास्ते आसान कर दिए जाते हैं। सवाल अपनी जगह सही है, लेकिन यह टिप्पणी विडंबनापूर्ण भी है, क्योंकि खुद सुप्रिया श्रीनेत एक राजनीतिक परिवार से आती हैं। उनके पिता हर्षवर्धन कांग्रेस के सांसद रह चुके हैं।

दरअसल, वंशवाद भारतीय राजनीति की सबसे गहरी जड़ है। फर्क बस इतना है कि कांग्रेस ने इसे अपनी राजनीतिक संस्कृति का स्थायी हिस्सा बना लिया है, भाजपा ने इसे सीमित लेकिन रणनीतिक तरीके से अपनाया है, और क्षेत्रीय दल तो लगभग पूरी तरह परिवारवाद पर खड़े हैं।कांग्रेस का इतिहास वंशवाद की सबसे बड़ी मिसाल है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तक इस पार्टी का नेतृत्व हमेशा एक ही परिवार के इर्द-गिर्द घूमता रहा। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू लगातार 17 वर्षों तक पद पर रहे। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने लगभग 15 साल देश की सत्ता संभाली। इंदिरा के बेटे राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। राजीव की मौत के बाद सोनिया गांधी दो दशकों तक कांग्रेस की वास्तविक शक्ति बनी रहीं। उनके बेटे राहुल गांधी और बेटी प्रियंका गांधी आज पार्टी के प्रमुख चेहरे हैं।

यही कारण है कि कांग्रेस में नेतृत्व का संकट उत्पन्न होते ही नज़रें गांधी परिवार की ओर घूम जाती हैं। संगठन में कोई भी नया चेहरा स्थायी नेतृत्व के रूप में उभर नहीं पाता। यही कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है।सिर्फ शीर्ष स्तर पर ही नहीं, बल्कि राज्यों में भी कांग्रेस वंशवाद से ग्रसित है। हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लेकर छत्तीसगढ़ में ताम्रध्वज साहू, राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट, पंजाब में रंधावा और बादल परिवारों की तरह कई उदाहरण मिलते हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस के करीब 32 प्रतिशत सांसद वंशवादी हैं। यानी हर तीन में से एक सांसद किसी न किसी राजनीतिक घराने से आता है। 1999 से 2019 के बीच कांग्रेस के 36 सांसद ऐसे चुने गए जिनका सीधा संबंध राजनीतिक परिवारों से था।

नेहरू काल से ही इसकी नींव रख दी गई थी। नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को अमेरिका और सोवियत संघ में राजदूत बनाया। उनके चचेरे भाई बी.के. नेहरू को कई देशों का राजदूत और राज्यपाल नियुक्त किया गया। इंदिरा गांधी के दौर में संजय गांधी अनौपचारिक शक्ति केंद्र बने और आपातकाल के समय लोकतंत्र को अपूरणीय क्षति पहुँची। राजीव गांधी के समय में भी करीबी रिश्तेदार और दोस्तों को सत्ता तंत्र में बड़ी जगह मिली। सोनिया गांधी के दौर में यह परंपरा और गहरी हुई। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस धीरे-धीरे जनता से कटती गई और संगठनात्मक रूप से कमजोर होती चली गई।2024 लोकसभा चुनाव इसका ताज़ा उदाहरण है। गांधी परिवार की सक्रियता के बावजूद कांग्रेस 100 सीटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी। राहुल गांधी की “भारत जोड़ो यात्रा” से बनी थोड़ी-बहुत ऊर्जा भी परिवारवाद के सवालों में उलझकर कमजोर पड़ गई। यही कारण है कि जनता आज कांग्रेस को “एक परिवार की कंपनी” मानने लगी है।

भाजपा लंबे समय तक खुद को गैर-वंशवादी पार्टी के रूप में पेश करती रही। संघ की पृष्ठभूमि से आई यह पार्टी संगठन, अनुशासन और विचारधारा को सर्वोच्च मानने का दावा करती रही। नरेंद्र मोदी ने 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि उनकी कोई संतान नहीं है, न कोई भाई-भतीजा राजनीति में है, इसलिए भाजपा “परिवारवाद मुक्त” पार्टी है। यह दावा उस समय जनता को खूब भाया।लेकिन जैसे-जैसे भाजपा का दायरा बढ़ा और वह सत्ता का केंद्रीय ध्रुव बनी, वैसे-वैसे उसमें भी वंशवाद घर करने लगा। 2014 की जीत के बाद भाजपा के लगभग 15 प्रतिशत सांसद ऐसे थे जो किसी न किसी राजनीतिक घराने से आते थे। 2019 में यह संख्या और बढ़ गई। कर्नाटक में येदियुरप्पा परिवार, महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे और पाटिल परिवार, राजस्थान में भजनलाल और अब राजेंद्र राठौड़ के बेटे, मध्यप्रदेश में सिंधिया घराना और उत्तराखंड में भट्ट परिवार इसके उदाहरण हैं।2025 की राजनीति में भी भाजपा पर यह सवाल लगातार उठ रहा है। हाल ही में मध्यप्रदेश उपचुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया के रिश्तेदारों को टिकट दिए जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं ने नाराज़गी जताई। हरियाणा और राजस्थान में भी ऐसे ही आरोप लगते रहे हैं। भाजपा भले ही कांग्रेस जैसी “एक परिवार वाली पार्टी” न हो, लेकिन धीरे-धीरे उसमें भी वंशवाद की छाया फैलती जा रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा में यह कई परिवारों में बंटा है, इसलिए यह उतना स्पष्ट नहीं दिखता।

यदि कांग्रेस और भाजपा वंशवाद से प्रभावित हैं, तो क्षेत्रीय दल लगभग पूरी तरह परिवारवाद पर टिकी हुई पार्टियाँ बन चुके हैं। समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव के परिवार से बाहर कभी नहीं निकल पाई। आज अखिलेश यादव पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, उनके चाचा शिवपाल यादव अलग गुट बनाकर खड़े हैं और डिंपल यादव, तेज प्रताप, अक्षय यादव जैसे दर्जनों सदस्य राजनीति में सक्रिय हैं।राष्ट्रीय जनता दल (RJD) पूरी तरह लालू प्रसाद यादव के परिवार की जागीर है। तेजस्वी यादव बिना लंबे अनुभव के सीधे उपमुख्यमंत्री और फिर मुख्यमंत्री पद तक पहुँच गए। तेजप्रताप यादव को भी राजनीति में स्थापित करने की कोशिश लगातार होती रही है।

दक्षिण भारत में डीएमके करुणानिधि परिवार की पार्टी बन चुकी है। एम.के. स्टालिन आज मुख्यमंत्री हैं और उनके बेटे उदयनिधि स्टालिन को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया है। इसी तरह महाराष्ट्र की शिवसेना बाल ठाकरे से शुरू होकर उद्धव ठाकरे और अब आदित्य ठाकरे तक सीमित हो चुकी है। अकाली दल बादल परिवार की बपौती बन चुका है। यहां तक कि तेलंगाना राष्ट्र समिति (बीआरएस) भी के. चंद्रशेखर राव के परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जहाँ उनके बेटे के.टी.आर. और बेटी कविता राजनीति में हैं।

वंशवाद का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि राजनीति नए चेहरों और नए विचारों से वंचित हो जाती है। साधारण परिवारों से आने वाले युवाओं के लिए राजनीति में प्रवेश लगभग असंभव होता जा रहा है। चुनाव अब इतने महंगे हो चुके हैं कि संसाधनों के बिना टिकना मुश्किल है, और यही संसाधन अधिकतर उन्हीं परिवारों के पास होते हैं जो पहले से सत्ता में हैं।सुप्रिया श्रीनेत का वीडियो इसी विडंबना का आईना है। भाजपा पर सवाल उठाने वाली कांग्रेस को पहले खुद से पूछना होगा कि वह कब तक गांधी परिवार पर निर्भर रहकर आगे बढ़ सकती है। कांग्रेस की यह कमजोरी भाजपा के लिए सबसे बड़ा अवसर बन गई है। लेकिन भाजपा को भी यह समझना होगा कि यदि उसने भी वंशवाद को खुलेआम अपनाया तो भविष्य में वही संकट उसके सामने भी खड़ा होगा जो आज कांग्रेस झेल रही है।

2024-25 की राजनीति इस बात की गवाह है कि जनता अब वंशवाद से थक चुकी है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार के हालिया उपचुनावों में मतदाताओं ने कई जगह “वंशवादी उम्मीदवारों” को नकार दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू के छात्र संघ चुनावों में भी स्वतंत्र और गैर-वंशवादी चेहरों को प्राथमिकता दी गई। यह संकेत है कि नई पीढ़ी बदलाव चाहती है।भारतीय लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि अवसर सबके लिए खुले हों। राजनीति यदि परिवारों की बपौती बन गई तो जनता का भरोसा टूट जाएगा और यह टूटन किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। “Your Kids vs Their Kids” का सवाल केवल भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र के लिए चेतावनी है। अगर पार्टियाँ इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लेंगी तो आने वाले वर्षों में जनता अपनी नाराज़गी चुनावी नतीजों में और स्पष्ट रूप से दर्ज करेगी।

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