इंसाफ का तराजू’ से ‘पिंक’ तक: सिनेमा में बलात्कार और न्याय का संघर्ष
सिनेमा का प्रभाव सामाजिक मुद्दों को उजागर करने और जनमानस के दिमाग में गहरी छाप छोड़ने में हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। गैंगरेप और सामाजिक अपराध जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बनी फिल्में कभी-कभी सड़क पर हुए आंदोलनों के समान जनजागरण का काम करती हैं। फिल्मी दुनिया में जब भी दिल को दहलाने वाले डायलॉग गूंजते हैं, तो सिनेमा हॉल दर्शकों के उत्साह से गूंज उठता है। पूरी माहौल में थ्रिल और उत्तेजना भर जाती है। फिल्म देखने वाले दर्शकों की नसों में खून की लहर दौड़ जाती है और वे पीड़ितों की संवेदना के साथ एकाकार हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे सिनेमा हॉल भी एक आंदोलन का हिस्सा बन गया हो।
हालांकि, यह दिलचस्प है कि जिस समय अदालतों में इन मुद्दों पर गहन बहस चल रही होती है, एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, उसी समय देश भर में बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही होती हैं। पुलिस, कानून और गवाह की कमी के कारण इन घटनाओं को अक्सर उचित न्याय नहीं मिलता। हमारे समाज का पूरा ध्यान केवल कोर्ट रूम ड्रामा तक ही सीमित रहता है और इसी कारण पूरा सिस्टम और राजनीति इसके चारों ओर सिमट जाती है। दिल्ली निर्भया कांड से लेकर कोलकाता की निर्भया तक, इन मामलों में यही दृष्टिकोण देखा जा सकता है।
राजनीति ने कई आंदोलनों की बुनियाद बना दी है, लेकिन अधिकांश वारदातों की न तो पर्याप्त कवरेज होती है और न ही उनके बाद फॉलोअप होता है। सिनेमा के डायलॉग तब सच में बदल जाते हैं। पीड़िता की बातों में सन्नी देओल का मशहूर डायलॉग “तारीख पर तारीख” सुनाई देता है। यह सिलसिला तब तक दबा रहता है, जब तक कोई हाई प्रोफाइल केस या राजनीतिक मेलोड्रामा नहीं आ जाता। ज़ीनत अमान की ‘इंसाफ का तराजू’, सुजाता मेहता और नाना पाटेकर की ‘प्रतिघात’, सन्नी देओल और मीनाक्षी शेषाद्रि की ‘दामिनी’, और अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की ‘पिंक’ जैसी फिल्में ऐसे सवाल उठाती हैं जो सिस्टम के गाल पर तमाचा हैं।
फिल्म में कानून का सबूत पर जोर
बीआर चोपड़ा की फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ (1980) में उठाए गए सवाल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। फिल्म में ज़ीनत अमान का किरदार भारती सक्सेना अदालत में सवाल उठाती है: “अगर किसी सच का कोई सबूत नहीं है, कोई गवाह नहीं है, तो क्या इसका मतलब है कि वह सच नहीं है? और क्या आपका न्याय उसे झूठ मानकर सजा देगा?” यह सवाल तब उठता है जब देश भर में हर दिन बलात्कार की घटनाएं होती हैं जिनमें सबूत की कमी होती है। आरोपी अक्सर महज हिरासत में पूछताछ के बाद छोड़ दिए जाते हैं, और सजा उन मामलों को ही मिलती है जिन्हें मीडिया में हाइप मिलती है।
“बलात्कारी का खून किया, लेकिन जुर्म नहीं”
फिल्म में सबूत के अभाव में भारती सक्सेना अपने अपराधी को सजा नहीं दिलवा पाती। जब वही अपराधी उसकी छोटी बहन को शिकार बनाता है, तो वह खुद को रोक नहीं पाती। वह अपराधी के दफ्तर में पहुंचकर उसे गोली मार देती है। कोर्ट में वह जज के सामने कहती है, “रमेश गुप्ता का मैंने खून जरूर किया, लेकिन जुर्म नहीं। मैंने भी आपकी तरह इंसाफ किया है।” वह यह भी कहती है, “यह वह जगह है जहां भगवान कृष्ण को भी अपनी गीता पर हाथ रखकर कसम खानी पड़ेगी। बलात्कार का सबूत कहां से आएगा?”
फिल्में और न्याय की लंबी प्रक्रिया
‘इंसाफ का तराजू’ के बाद, भारतीय सिनेमा ने महिला सुरक्षा, सम्मान और आत्मनिर्भरता के मुद्दों को लेकर कई फिल्में बनाई हैं। ‘दामिनी’, ‘मातृ’, ‘भूमि’, और ‘मर्दानी 2’ जैसी फिल्मों ने इन मुद्दों को जोर-शोर से उठाया है। इनमें सन्नी देओल का “तारीख पर तारीख” डायलॉग न्यायिक प्रक्रिया की लंबाई पर प्रश्न खड़ा करता है। इन फिल्मों में महिला शोषण और उत्पीड़न की कहानियां सड़कों पर होने वाले आंदोलनों की तरह ही प्रभावशाली रही हैं।
दिल्ली निर्भया कांड और ‘पिंक’
दिल्ली निर्भया कांड के बाद, शूजीत सरकार की फिल्म ‘पिंक’ ने भी महत्वपूर्ण सवाल उठाए। यह फिल्म आधुनिक समाज में महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता को लेकर जागरूकता फैलाती है। फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन का डायलॉग “ना का मतलब ना ही होता है” महिलाओं के सम्मान की एक महत्वपूर्ण बात को उजागर करता है। यह दिखाता है कि ना केवल एक शब्द नहीं, बल्कि एक पूरी स्थिति है जो किसी भी महिला की इच्छा और इज्जत को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है।
सिनेमा समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संवाद का माध्यम है, जो दर्शकों को संवेदनशील मुद्दों पर सोचने पर मजबूर करता है। हालांकि, सिनेमा और वास्तविकता में अंतर है। फिल्मी डायलॉग और परिदृश्य महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं, लेकिन वास्तविकता में न्याय और सामाजिक परिवर्तन के लिए हमें ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। केवल फिल्में ही नहीं, बल्कि समाज में सुधार और कानून की प्रभावी व्यवस्था ही सच्चे बदलाव की दिशा में सहायक हो सकती है।
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