लैटरल एंट्री की वापसी: विपक्ष की ताकत या सरकार की कमजोर स्थिति?
हर चुनी हुई सरकार को यह हक होता है कि वह सरकार के अधिकारियों का चयन खुद करे। यह अधिकार उसे इसलिए मिलता है ताकि वह अपनी सुविधा से देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत कुशल और काबिल लोगों को नौकरशाही में अहम पद दे सके। लोकतंत्र में इस शक्ति का उद्देश्य सरकार की कार्यकुशलता और प्रभावशीलता को बढ़ाना है। परंतु, आज की राजनीति में इस शक्ति का प्रयोग और उसके परिणाम एक नई दिशा में जा रहे हैं।
हाल के वर्षों में, खासकर जब से मोदी 3.0 सरकार बनी है, कई अहम फैसले वापस लिए गए हैं। यह सरकार, जो संसद में एक मजबूत बहुमत के साथ सत्तारूढ़ है और उसके सहयोगी दल भी अधिकांश मामलों में उसके साथ हैं, फिर भी विभिन्न मुद्दों पर पीछे हट रही है। इनमें वक्फ बोर्ड की नीतियां, दलित आरक्षण के कोटे में से क्रीमी लेयर को बाहर करने का निर्णय, और नौकरशाही में लैटरल एंट्री जैसी महत्वपूर्ण घोषणाएं शामिल हैं। यह वही मोदी सरकार है जिसने बिना किसी पूर्व सूचना के दो बार नोटबंदी की और अचानक GST लागू कर दी।
ऐसी स्थिति में, यह सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार के पास खुद पर और अपनी पार्टी पर पूरा विश्वास नहीं है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संदेह है कि उनकी पार्टी के लोग भितरघात कर सकते हैं? यह सवाल खासतौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि लैटरल एंट्री का उद्देश्य योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करना होता है, न कि जातिगत आरक्षण के आधार पर। इस परिप्रेक्ष्य में, यह देखना रोचक होगा कि क्या यह नीति पूर्व की कांग्रेसी सरकारों के समान है, जहां लैटरल एंट्री का आधार योग्यता और निपुणता रहा।
सरकारी पक्ष की असंयमित भाषा
मोदी 3.0 सरकार के विरोध में विपक्ष ने कई मोर्चों पर हमला बोला है, जिससे सरकार ने कुछ मामलों में हड़बड़ी में निर्णय लिए हैं। संसद में विपक्ष के किसी भी सवाल का जवाब तर्कसंगत ढंग से देने के बजाय, सरकार के मंत्री या प्रवक्ता खुद ही शोरगुल करने लगते हैं। इस असंयमित व्यवहार का सबसे स्पष्ट उदाहरण लोकसभा में भाजपा के प्रवक्ता अनुराग ठाकुर का बयान था, जिसमें उन्होंने जाति जनगणना पर प्रश्न उठाने के लिए विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया।
इस प्रकार की असंयमित भाषा और व्यवहार, न केवल विपक्ष को चुनौती देती है, बल्कि सरकार की छवि को भी प्रभावित करती है। एक सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह संसद में संयमित और सभ्य भाषा का प्रयोग करे। यदि सरकार अपनी शक्ति का प्रदर्शन संयमित और तर्कसंगत तरीके से करती है, तो उसकी नीतियों और निर्णयों को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
लैटरल एंट्री की राजनीति
लैटरल एंट्री के मुद्दे पर, उत्तर प्रदेश की मायावती और अखिलेश यादव की सरकारों ने भी लैटरल एंट्री का उपयोग किया था। मायावती ने कैबिनेट सेक्रेटरी का पद शशांक शेखर सिंह को सौंपा, जो आईएएस परीक्षा पास किए बिना भी एक सफल अधिकारी साबित हुए। इसी तरह, अखिलेश यादव ने एपी मिश्र को यूपी पावर कारपोरेशन लिमिटेड का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिन्होंने अपनी क्षमताओं से ऊर्जा क्षेत्र में सुधार किया।
यह उदाहरण दर्शाते हैं कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले लोग परंपरागत अधिकारियों से बेहतर साबित हो सकते हैं, बशर्ते वे सक्षम और कुशल हों। यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि लैटरल एंट्री कृपा या किसी अन्य बाहरी दबाव पर आधारित न हो, बल्कि पूरी तरह से योग्यता पर आधारित हो।
नेहरू और लैटरल एंट्री
पंडित नेहरू के समय में भी लैटरल एंट्री की जाती थी। आज़ादी के बाद, वायसराय सचिवालय में काम करने वाले अधिकांश वरिष्ठ नौकरशाह ब्रिटिश थे। उनकी वापसी के बाद, नेहरू ने दोयम दर्जे के अफसरों को प्रोन्नत किया और कुछ नई लैटरल एंट्री की। यह दर्शाता है कि यह प्रथा एक ऐतिहासिक पहलू है, जिसे विभिन्न सरकारों ने अपनाया है।
हालांकि, मोदी 3.0 सरकार विपक्ष के शोर शराबे के भय से कई मामलों में पीछे हटती नजर आ रही है। वक्फ बोर्ड का मामला जॉइंट पार्लियामेंटरी कमेटी (JPC) को भेजा गया और एससी-एसटी समाज के आरक्षण में क्रीमी लेयर की बंदिशों पर अमल से सरकार घबराई। इस प्रकार की पीछे हटने की प्रवृत्ति सरकार के निर्णय लेने की क्षमता और नीति स्थिरता पर सवाल खड़ा करती है।
भविष्य की राजनीति और अपेक्षाएं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले और दूसरे कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की थीं, जो जनता की उम्मीदों को बढ़ा चुकी थीं। परंतु, इन अपेक्षाओं को पूरा करना इतना आसान नहीं रहा। किसानों ने कृषि बिल के खिलाफ सरकार को घेर लिया और अंततः सरकार को तीनों कृषि क़ानून वापस लेने पड़े। यह भी दर्शाता है कि सरकार को अपनी नीतियों के कार्यान्वयन में सतर्क रहना होगा, और किसी भी विवाद को प्रभावी ढंग से सुलझाना होगा।
सरकार को विपक्ष के साथ संवाद बनाए रखना चाहिए और प्रमुख मुद्दों पर उन्हें भरोसे में लेना चाहिए। कोई भी फैसला लेने से पहले, विशेषकर जब सरकार की स्थिति पहले की तरह मजबूत न हो, तो विपक्षी दलों से बातचीत करना महत्वपूर्ण हो सकता है। इससे न केवल फैसलों की स्वीकृति सुनिश्चित की जा सकती है, बल्कि इससे सरकार की नीतियों पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
भारत की राजनीति में बदलती धारा और सरकारों के निर्णयों की समीक्षा महत्वपूर्ण है। मोदी 3.0 सरकार को अपनी नीतियों और निर्णयों के प्रति सजग रहना होगा और राजनीतिक रणनीति में संयम और विवेक का पालन करना होगा। लैटरल एंट्री और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय लेते समय, यह आवश्यक है कि सरकार अपनी शक्ति का प्रयोग ठीक तरीके से करे और विपक्ष के साथ सहयोग बनाए रखे। इससे न केवल सरकार की प्रभावशीलता बढ़ेगी, बल्कि लोकतंत्र की मजबूती भी सुनिश्चित होगी।
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