लाहौर में भारतीय सेना की धाक पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब


लाहौर में भारतीय सेना की धाक पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब

6 सितंबर 1965 को जब असली युद्ध शुरू हुआ, तब तक इसके संकेत काफी पहले मिल चुके थे। 25 जनवरी 1965 को ही पाकिस्तान ने गुजरात के कच्छ के रण में घुसपैठ करनी शुरू कर दी थी। कच्छ का रण एक ऐसा क्षेत्र था जो साल के सात महीने जलमग्न रहता था, जिसके कारण वहाँ की सीमाएं स्पष्ट नहीं थीं। गुजरात पुलिस की पेट्रोलिंग पार्टी ने भारतीय सीमा के 2.4 किलोमीटर अंदर 32 किलोमीटर लंबी एक नई पगडंडी देखी, जो पाकिस्तान की घुसपैठ की ओर इशारा कर रही थी। लाल बहादुर शास्त्री ने अक्साई चीन मामले में नेहरू की गलती को न दोहराते हुए देश को इस नई खतरे की जानकारी दी। पाकिस्तान इस इलाके में सामरिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में था, वहाँ एक एयरपोर्ट और पूरी इन्फेंट्री डिवीजन की तैनाती के साथ पैटन टैंक तथा अन्य हल्के और मध्यम टैंक भी मौजूद थे। अमेरिकी एफ-86 विमानों के दो स्क्वाड्रन भी तैनात थे, जिन्हें अमेरिका ने कम्युनिस्ट प्रसार को रोकने की शर्त पर पाकिस्तान को दिए थे।

अंतरराष्ट्रीय दबाव और कच्छ का विवाद

भारत की आपत्ति के बाद अमेरिका ने इस स्थिति को देखने के लिए अपने ऑब्जर्वर भेजे, लेकिन यह सिर्फ औपचारिकता थी। ख्रुश्चेव के बाद रूस की पाकिस्तान से दोस्ती की पहल ने भी पाकिस्तान को यह विश्वास दिलाया कि युद्ध की स्थिति में रूस हस्तक्षेप नहीं करेगा। लाल बहादुर शास्त्री पाकिस्तान से अपने इलाके तुरंत छुड़वाना चाहते थे, लेकिन थल सेनाध्यक्ष जनरल जे. एन. चौधरी पाकिस्तान से तुरंत युद्ध के पक्ष में नहीं थे। ब्रिटेन की पहल पर भारत ने कच्छ विवाद पर तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार की, जिससे युद्ध टल गया। लेकिन इसके परिणामस्वरूप भारत को अपने दावे वाले इलाके की तीन सौ वर्ग मील जमीन पाकिस्तान को देनी पड़ी।

पाकिस्तान की कश्मीर पर निगाहें

भारत द्वारा युद्ध टालने की कोशिशों ने पाकिस्तान को और उत्साहित किया। पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ के इरादे से अपने प्रशिक्षण कैंप शुरू कर दिए थे। जुलाई के अंत तक कश्मीर सीमा पर लगभग तीन सौ बार गोलीबारी हुई। भारत को खुफिया सूत्रों से पता चला कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जे की तैयारी कर रहा है। 8 अगस्त 1965 को दो पाकिस्तानी फौजी अफसर, कैप्टन गुलाम हुसैन और कैप्टन सज्जाद हुसैन की गिरफ्तारी ने इन सूचनाओं की पुष्टि की। पाकिस्तान की योजना थी कि कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली सड़क को नष्ट कर दिया जाए और बड़ी संख्या में कश्मीर में घुसपैठ करने वाले इंकलाबी काउंसिल गठित करके खुद को कानूनी कश्मीर सरकार घोषित करें। फिर वे पाकिस्तान और अन्य देशों से मान्यता की अपील करेंगे। 9 अगस्त को रेडियो पर इसका प्रसारण होने के बाद पाकिस्तानी फौजों ने कश्मीर में दाखिल होने की तैयारी की।

शास्त्री का कूच का आदेश

1 सितंबर 1965 को पाकिस्तान ने कश्मीर के अखनूर-जम्मू सेक्टर में युद्ध विराम सीमा का उल्लंघन कर हमला शुरू कर दिया। 3 सितंबर को लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय सेना को पंजाब में अंतर्राष्ट्रीय सीमा लांघकर पाकिस्तान पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। उन्होंने जनरल जे. एन. चौधरी से कहा कि "मैं लाहौर पहुंच जाना चाहता हूं, इससे पहले कि वे कश्मीर पहुंचें।" यह सही है कि भारत ने चीन के हाथों पराजय से सबक लिया था और कच्छ के रण में पाकिस्तान की सैन्य गतिविधियों के बाद भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार थी।पाकिस्तान पर हमले का कोड “ऑपरेशन रिडल” रखा गया। भारतीय सेना ने कश्मीर के मोर्चे पर दबाव कम करने के लिए 6 सितंबर को अमृतसर, फिरोजपुर, और गुरुदासपुर से तीन तरफा हमला शुरू किया। दो दिन बाद सियालकोट पर भी हमला किया गया, जो पाकिस्तान का एक महत्वपूर्ण बेस था और जहां से पाकिस्तान ने छंब सेक्टर पर हमले की योजना बनाई थी।

युद्ध का उद्देश्य

भारत का इस युद्ध में उद्देश्य पाकिस्तान की धरती पर कब्जा करना नहीं था, बल्कि उसके हथियारों के भंडारों को नष्ट करना था। भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना के अमेरिकी पैटन टैंकों और अन्य हथियारों को ध्वस्त करके पाकिस्तान के सैन्य मंसूबों को विफल कर दिया। 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। लाल बहादुर शास्त्री को फिरोजपुर सेक्टर के जवानों को लड़ाई रोकने के लिए मनाने में कठिनाई हुई, क्योंकि उन्हें अंतरराष्ट्रीय और खासकर अमेरिका के दबाव की जानकारी थी।इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के 470 वर्ग मील और पाक अधिकृत कश्मीर के 270 वर्गमील इलाके को कब्जे में लिया। पाकिस्तान के कब्जे में भारत का 210 वर्गमील इलाका गया।

लाहौर पर कब्जा: एक अनावश्यक बोझ

जनरल जे. एन. चौधरी से मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने पूछा कि भारतीय सेनाओं की बढ़त धीमी क्यों थी। जनरल का जवाब था कि हम पाकिस्तानी इलाके पर कब्जे के लिए नहीं, बल्कि पाकिस्तान के हथियारों के भंडार नष्ट करने के लिए लड़ रहे थे। वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल अर्जुन सिंह ने भी इसे पुष्टि की और कहा कि यह एक तरीके से हथियारों की लड़ाई थी, और हमारे लिए महत्वपूर्ण था कि पाकिस्तान के ज्यादा से ज्यादा हथियार नष्ट करें।पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हर बख्श सिंह के अनुसार, लाहौर पर कब्जा सैन्य लक्ष्य में शामिल नहीं था। लाहौर पर कब्जा एक बोझ होता। युद्ध भारत पर थोपा गया था, और हम दुश्मन को सबक सिखाने में पूरी तरह सफल रहे। जनरल चौधरी का भी यही कहना था कि भारत का लाहौर पर कब्जे का कोई इरादा नहीं था। लाहौर पर कब्जा करने का मतलब था वहां की दस लाख की आबादी का भरण-पोषण और सैनिकों की बड़ी संख्या के साथ तैनाती की जिम्मेदारी लेना।

शास्त्री की विजय और नई छवि

इस युद्ध में भारत की विजय ने लाल बहादुर शास्त्री की छवि को बहुत ऊंचा कर दिया। नैयर ने युद्ध के बाद शास्त्री से पूछा कि सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघने का आदेश किसने दिया था। उनका दो टूक जवाब था, "मैंने दिया।" इस आदेश पर जनरल चौधरी और अन्य सैन्य कमांडर दंग रह गए थे। शास्त्री के अनुसार, भारत की लड़ाई न करने की इच्छा को पाकिस्तान ने कमजोरी समझा और इसी सोच के तहत उसने कश्मीर में व्यापक घुसपैठ की।लेफ्टिनेंट जनरल हर बख्श सिंह ने कहा कि "सबसे छोटे कद के आदमी के इस सबसे बड़े आदेश को भारतीय सेना कभी भुला नहीं सकती।" युद्ध में भारत की जीत के बाद लाल बहादुर शास्त्री की जयकार देश के हर हिस्से में गूंज रही थी। उनकी पुकार पर देश एकजुट हो गया था। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में सारे मतभेद और कमियां दरकिनार हो गईं। खाद्यान्न संकट और अमेरिका की सहायता की शर्तों के बावजूद उन्होंने कहा, "बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत भली। थाली में सब्जी है तो दाल छोड़ो। हफ्ते में एक शाम उपवास करो।" लोगों ने न केवल इसे स्वीकार किया बल्कि दिखाया भी।

अमेरिका और सोवियत संघ का दबाव

20 सितंबर 1965 को सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि भारत और पाकिस्तान की सेनाएं 5 अगस्त 1965 की स्थिति में वापस जाएं। अमेरिका और सोवियत संघ दोनों इस प्रस्ताव को लागू करने पर आमादा थे। ताशकंद वार्ता इसी प्रस्ताव का अगला चरण थी।कोसिगिन ने 10 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर कराने में सफलता प्राप्त की। इस समझौते का सार था कि "भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति के बीच यह सहमति हुई है कि दोनों देशों के सभी लोग 25 फरवरी 1966 तक 5 अगस्त 1965 से पहले की स्थिति में लौट जाएंगे और दोनों देश युद्ध विराम रेखा पर युद्ध विराम की शर्तों का पालन करेंगे।"

युद्ध की विजय और संधि की हार

समझौते पर देश की प्रतिक्रिया को लेकर शास्त्री चिंतित थे। रात के ग्यारह बजे उन्होंने सबसे पहले अपने दामाद से बात की, फिर फोन पर अपनी बेटी कुसुम से। पूछा कि कैसे लगा? बेटी ने कहा, "हमें तो अच्छा नहीं लगा।" शास्त्री ने पत्नी ललिता से बात करने को कहा, लेकिन वह बात करने को तैयार नहीं हुईं। शास्त्री ने कहा कि अगर घर वालों को अच्छा नहीं लगा, तो बाहर वाले क्या कहेंगे?

उस रात 1.20 पर लाल बहादुर शास्त्री, सेवक जगन्नाथ के कमरे के दरवाजे तक पहुंचे। बड़ी मुश्किल से डॉक्टर के लिए पूछ सके। जगन्नाथ और सहयोगियों ने बिस्तर तक पहुंचाया। फौरन ही डॉक्टर चुग भी पहुंचे, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। बांह और दिल में लगे इजेक्शन और कृत्रिम सांस देने की कोशिशें बेअसर रही।

तिरंगा जिसे लहराने के लिए वह आजादी की लड़ाई लड़े थे, आज उनकी निस्तेज देह पर फैला दिया गया। ताशकंद की सड़कों पर जो दो दिन पहले उनके स्वागत में चहक रहे थे, आज उदासी से बोझिल थे। और भारत! वहां लोगों की आंखों में आंसू थे आंसू उस युद्ध की विजय के लिए जो बात-चीत की मेज पर हार गया था और अपने बहादुर नेता को खोने के।

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