क्या 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' संविधान की आत्मा हैं या राजनीतिक मुखौटे?
भारत का संविधान जब 1950 में लागू हुआ, तब इसकी प्रस्तावना में कुछ ऐसे शब्द नहीं थे जो आज सबसे बड़े राजनीतिक हथियार बन चुके हैं। 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को संविधान में 1976 में 42वें संविधान संशोधन के ज़रिए जोड़ा गया। तब से लेकर अब तक इन दो शब्दों को लेकर जितनी राजनीति हुई है, उतनी शायद संविधान के किसी अन्य हिस्से को लेकर नहीं। आज जब इन्हें प्रस्तावना से हटाने की चर्चा फिर से तेज़ हो गई है, तो यह ज़रूरी हो जाता है कि इन शब्दों का एक कठोर, निष्पक्ष और आलोचनात्मक विश्लेषण किया जाए बिना किसी राजनीतिक संकोच के।‘समाजवादी’ शब्द का पहला संकट यह है कि यह विचारधारा स्वयं भारत में कभी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हुई। जिस यूरोप में समाजवाद ने जन्म लिया, वहां यह राज्य के द्वारा उत्पादन साधनों के अधिग्रहण और वितरण की प्रणाली से जुड़ा हुआ था। लेकिन भारत में इसे सामाजिक न्याय, गरीबों के कल्याण और समानता का पर्याय बनाकर पेश किया गया, जबकि व्यावहारिक रूप से इसका अर्थ सत्ता में बैठे नेताओं के लिए राजनीतिक वितरण और जातिगत समीकरण बन गया। कांग्रेस हो या बाद में आई समाजवादी पार्टियां हर किसी ने 'समाजवाद' के नाम पर योजनाएं चलाईं, लेकिन इसका लाभ आम जनता को कम और दलाली तंत्र को ज़्यादा मिला।
आजादी के बाद के दशकों में जिस प्रकार से सरकारीकरण हुआ, उद्योगों को सरकारी चंगुल में रखा गया, और हर चीज़ पर लाइसेंस-परमिट राज चला, वह सब 'समाजवाद' के नाम पर ही हुआ। लेकिन इसने न तो गरीबी मिटाई और न ही सामाजिक विषमता। उल्टा, इसने भ्रष्टाचार और अफसरशाही को बढ़ावा दिया। ‘समाजवाद’ का अर्थ बन गया राज्य का हर चीज़ पर नियंत्रण, लेकिन जवाबदेही शून्य। जो नीति गरीबों के कल्याण के लिए लाई गई थी, वही नीति बाद में गरीबों के लिए अभिशाप बन गई।आज के भारत में अगर हम ईमानदारी से देखें, तो समाजवाद के नाम पर जो आर्थिक योजनाएं चलाई जाती हैं, उनमें आत्मनिर्भरता की भावना नहीं बल्कि सरकार पर निर्भरता की मानसिकता पनपाई जाती है। ‘फ्री रेवड़ी’ संस्कृति उसी ‘समाजवाद’ का विकृत रूप है, जिसमें वोट के बदले मुफ्त सुविधाएं दी जाती हैं। क्या यही समाजवाद है? क्या डॉ. आंबेडकर ने संविधान में इस शब्द को जोड़ने की कल्पना की थी? जवाब स्पष्ट है नहीं।
अब बात करें ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की। यह शब्द भारत में जितना बोला जाता है, उतना ही अधिक इसके साथ दुरुपयोग जुड़ा है। धर्मनिरपेक्षता का शाब्दिक अर्थ है राज्य सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखे। लेकिन भारत में इसे व्यवहार में एक विशेष समुदाय के तुष्टिकरण के रूप में देखा गया। सच्चाई यह है कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सरकारों ने बार-बार हिन्दू समाज को लक्षित किया और अल्पसंख्यक समुदायों को विशेष लाभ देकर वोट बैंक तैयार किया।किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में कानून सबके लिए समान होता है, लेकिन भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता’ की आड़ में पर्सनल लॉ बनाए गए, धार्मिक संस्थानों को सरकारी हस्तक्षेप से छूट दी गई, और राजनीतिक दलों ने खुलेआम धर्म के आधार पर आरक्षण, अनुदान और योजनाएं चलाईं। देश के सबसे बड़े मंदिरों पर सरकारों का नियंत्रण है, लेकिन मदरसों और चर्चों पर नहीं। क्या यही धर्मनिरपेक्षता है? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों को दबाकर अल्पसंख्यकों को लाभ देना धर्मनिरपेक्षता है?
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कभी भी संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने की आवश्यकता नहीं समझी। 1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो उसमें यह शब्द नहीं था, फिर भी भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश था। यह शब्द जोड़ा गया 1976 में, जब देश आपातकाल की चपेट में था, और लोकतंत्र को कुचलने वाली इंदिरा गांधी सरकार ने इसे जोड़कर खुद को ‘लोकतांत्रिक’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ साबित करने का प्रयास किया। क्या यह जोड़ लोकतंत्र के अनुकूल था या सत्ता की मजबूरी थी?आज स्थिति यह है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल केवल राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए किया जाता है। जो नेता इन शब्दों की दुहाई देते हैं, उनके कार्यकाल में ही धर्म के नाम पर दंगे हुए, समाज के नाम पर आरक्षण की राजनीति हुई, और गरीबों के नाम पर भ्रष्टाचार फैला। क्या यही इन शब्दों का उद्देश्य था? नहीं। अगर ये शब्द वाकई इतने उपयोगी और प्रासंगिक होते, तो आज देश में न धार्मिक तनाव होता और न सामाजिक विषमता।
अब सवाल उठता है क्या इन शब्दों को प्रस्तावना से हटाया जाना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि इससे संविधान की आत्मा को ठेस पहुंचेगी। लेकिन क्या किसी शब्द को हटाने से संविधान की आत्मा खत्म हो जाएगी या उसका वास्तविक व्यवहार ज्यादा महत्वपूर्ण है? आज जरूरत इस बात की है कि हम संविधान की मूल भावना को समझें और निभाएं ना कि सिर्फ कुछ शब्दों को ढाल बनाकर उसे अपवित्र करें।मायावती जैसी नेता अगर संविधान की रक्षा की बात कर रही हैं तो यह स्वागतयोग्य है, लेकिन जब वह खुद संविधान की भावना से विपरीत जातिवादी राजनीति करें, आरक्षण को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करें, तो उनकी बात कितनी प्रासंगिक रह जाती है? जब राजनीतिक दल संविधान के नाम पर अपनी दुकान चलाएं और 'समाजवाद' व 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर केवल चुनावी हथियार बनाए रखें, तब इन शब्दों की पवित्रता स्वयं प्रश्नों के घेरे में आ जाती है।
देश को अब यह तय करना है कि क्या वह शब्दों से बंधा रहेगा या मूल्यों से। अगर कोई शब्द वास्तविक जीवन में न्याय, समानता और धार्मिक सहिष्णुता नहीं ला पा रहा है, तो उसका अस्तित्व केवल दिखावे का हिस्सा बन जाता है। भारत को चाहिए कि वह संविधान को आस्था का ग्रंथ बनाए, न कि राजनीतिक एजेंडे का शस्त्र।इसलिए आज जरूरत इस बात की नहीं कि हम संविधान की प्रस्तावना में कौन सा शब्द है और कौन सा नहीं इस पर लड़ें। जरूरत इस बात की है कि जो भी शब्द हैं, उन्हें ईमानदारी से निभाया जाए। और अगर कोई शब्द केवल भ्रम फैलाने और जनता को गुमराह करने का साधन बन गया है, तो उस पर पुनर्विचार करने से लोकतंत्र मजबूत ही होगा, कमजोर नहीं।
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