61 सीटों की सबसे कठिन लड़ाई! कांग्रेस के प्रदर्शन पर टिका महागठबंधन का भविष्य, वरना NDA की राह और आसान

बिहार चुनाव 2025 में कांग्रेस 61 कठिन सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिनमें कई पर अब तक कभी जीत नहीं मिली। उसका प्रदर्शन महागठबंधन के भविष्य और आरजेडी की रणनीति को तय करेगा। यदि कांग्रेस फिर कमजोर रही तो फ़ायदा सीधे NDA को मिल सकता है और गठबंधन की स्थिति और कमजोर होगी।



 61 सीटों की सबसे कठिन लड़ाई! कांग्रेस के प्रदर्शन पर टिका महागठबंधन का भविष्य, वरना NDA की राह और आसान

बिहार चुनाव 2025 में कांग्रेस की भूमिका कितनी प्रभावी होगी, यह सवाल सिर्फ चुनावी चर्चा का हिस्सा नहीं, बल्कि पूरे महागठबंधन के भविष्य से जुड़ा हुआ है। 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी। उस चुनाव के बाद विश्लेषकों ने साफ कहा था कि महागठबंधन की हार की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस का कमज़ोर प्रदर्शन था, क्योंकि आरजेडी के वोट और सीटें तो बढ़ीं, लेकिन कांग्रेस अपने हिस्से की सीटों में निर्णायक भूमि का निभाने में नाकाम रही। अब 2025 में कांग्रेस ने 61 सीटों पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला लिया है, यानी सीटें 70 से घटकर 61 हुई हैं, लेकिन हालात अधिक चुनौतीपूर्ण हो गए हैं। कांग्रेस इन 61 सीटों में से 9 सीटों पर फ्रेंडली फाइट कर रही है, जहाँ उसके सामने महागठबंधन के ही घटक दल हैं, यानी वोट सीधा बँटने की आशंका और लाभ एनडीए को मिलने की संभावना पहले से ज़्यादा है।कांग्रेस के सामने असली चुनौती यह नहीं है कि वह 61 सीटें लड़ रही है, बल्कि यह कि इनमें से 38 सीटों पर महागठबंधन ने पिछले सात विधानसभा चुनावों में कभी जीत हासिल नहीं की। यानी आँकड़ों के अनुसार इन सीटों पर एनडीए की पकड़ बहुत मजबूत रही है और कांग्रेस वहाँ शुरुआती स्थिति से ही पिछड़ी हुई है। इनमें से 23 सीटें तो ऐसी हैं जहाँ महागठबंधन का इतिहास शून्य है, और 15 सीटें ऐसी जहाँ पिछले सात चुनावों में सिर्फ एक बार जीत मिल पाई। इस लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस के पास वास्तविक रूप से आसान या संभावित जीत वाली सीटें सिर्फ 23 के आस-पास मानी जा रही हैं, शेष सीटें ‘राजनीतिक दरीचों वाली कठिन लड़ाई’ के अंतर्गत मानी जा रही हैं।

महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर सबसे बड़ी रणनीतिक बहस यही है कि क्या कांग्रेस अपने प्रदर्शन से गठबंधन को मजबूती दे पाएगी या फिर 2020 जैसी स्थिति दोहरा देगी। आरजेडी प्रमुख तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को 61 सीटें देकर दो उद्देश्यों को साधने की कोशिश की है एक, राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का संतुलन बनाए रखना और दूसरा, बिहार में विपक्षी एकता की छवि दिखाना। लेकिन कांग्रेस को दी गई इन सीटों के पीछे यह भी एक सच्चाई है कि आरजेडी और वाम दलों ने अपने लिए अपेक्षाकृत ‘सुरक्षित ज़ोन’ रख लिया है और कठिन सीटों या पिछले चुनावी हार वाली सीटों को कांग्रेस के खाते में डाला गया है। यही वजह है कि कांग्रेस का 2025 में प्रदर्शन न सिर्फ उसकी पार्टी, बल्कि पूरे गठबंधन के समीकरण को प्रभावित करेगा।इस बार चुनावी परिस्थितियाँ 2020 से अलग हैं। उस समय एनडीए के भीतर जेडीयू और बीजेपी के बीच अंदरूनी खींचतान थी, जबकि 2025 में नीतीश कुमार अब फिर से एनडीए का हिस्सा हैं और बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। 2020 में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन सरकार से बाहर रही। इस बार बीजेपी-जेडीयू की संयुक्त रणनीति, केंद्र सरकार का समर्थन, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रियता चुनावी माहौल को अलग बना रही है। कांग्रेस के सामने दोहरी चुनौती है पहला, ज़मीनी संगठन की कमज़ोरी, और दूसरा, चुनावी क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर कमज़ोर पकड़।

कांग्रेस की सीटों पर नज़र डालें तो उनमें अधिकतर उत्तर बिहार और दक्षिण के मिश्रित इलाकों में फैली हैं, लेकिन अधिकांश सीटों पर जातीय समीकरण एनडीए के पक्ष में रहे हैं। बिहार की राजनीति में पिछड़े वर्ग, अति पिछड़े वर्ग और सवर्ण मतदाताओं का समीकरण निर्णायक माना जाता है। कांग्रेस परंपरागत रूप से यादव-मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर नहीं रह पाती क्योंकि वह आरजेडी का कोर वोट माना जाता है। कांग्रेस का समर्थन आधार शहरी इलाकों, दलित-अति दलित वर्गों या पुराने परंपरागत ‘कांग्रेस परिवार’ वाले मतदाताओं में सिमटा हुआ दिखाई देता है, और यह आधार अब बहुत सीमित हो चुका है।कांग्रेस का 2025 में प्रदर्शन एक और वजह से निर्णायक है यदि वह 10–12 से कम सीटें लाई, तो महागठबंधन में उसके लिए भविष्य में सीटें कम कर दी जाएँगी। यदि वह 15–20 सीटें जीत लेती है, तो उसके लिए संतुलन की राजनीति बनी रहेगी। लेकिन यदि वह 25 से अधिक सीटें जीत पाती है जिसकी संभावना कम है तो वह 2020 की आलोचना को पलट सकती है और अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता वापस पा सकती है। चुनावी रणनीति के लिहाज़ से देखें तो कांग्रेस को इन सीटों पर आक्रामक प्रचार, स्थानीय उम्मीदवारों की साख और युवा-नेतृत्व वाले चेहरे को सामने लाना होगा, क्योंकि शीर्ष नेतृत्व के नाम से बिहार में वोट ट्रांसफर नहीं होता, जैसा कि बीजेपी या आरजेडी में देखा जाता है।

कांग्रेस जिन 9 सीटों पर फ्रेंडली फाइट कर रही है, वहाँ महागठबंधन के वोट बँटेंगे और इसका लाभ सीधे एनडीए को मिलने का अंदेशा है। इन सीटों में खासकर मुसलमान-यादव बहुल इलाकों में कांग्रेस और आरजेडी दोनों मैदान में होंगे, जिससे मतदाता भ्रमित हो सकता है। यही स्थिति 2020 में भी दिखी थी, जब वामपंथी दलों ने अपने क्षेत्रीय प्रभाव से बेहतर सीट प्रदर्शन किया और कांग्रेस पीछे रह गई। इस बार वाम दलों को चुनाव में कम सीटें मिली हैं, इसलिए कांग्रेस पर और दबाव है कि वह ‘बड़ी पार्टी’ का प्रदर्शन साबित करे।अगर कांग्रेस का स्ट्राइक रेट फिर से 25-30% तक सीमित रहता है तो वह 2020 की तरह आलोचना झेलेगी। यदि वह 61 में से सिर्फ 8–12 सीटें जीत पाती है तो अगले चुनाव में उसका महागठबंधन में ‘सीट-कोटा’ निश्चित रूप से और कम हो जाएगा। इसकी राजनीतिक कीमत सिर्फ कांग्रेस नहीं, बल्कि आरजेडी को भी चुकानी पड़ेगी क्योंकि एनडीए कुल सीटों की संख्या में बढ़त लेकर विधानसभा में स्थिर बहुमत पा सकता है।बिहार चुनाव का गणित यह कहता है कि इस बार कांग्रेस के पास खोने के लिए बहुत कुछ है और पाने के लिए उससे भी ज़्यादा। यदि कांग्रेस ने इस चुनाव में गंभीर उपस्थिति दर्ज नहीं कराई, तो बिहार की राजनीति में उसका स्थान सिर्फ ‘प्रतीकात्मक सहयोगी दल’ तक सीमित हो जाएगा। और यदि कांग्रेस ने अपने आधार क्षेत्रों में संसाधन, उम्मीदवार और चुनाव प्रबंधन को मजबूती से खड़ा किया तो वह अकेले अपनी पार्टी को ही नहीं, बल्कि महागठबंधन की सत्ता-संभावना को भी ज़िंदा रख सकती है। इसीलिए 2025 का यह चुनाव कांग्रेस के लिए चुनाव नहीं, बल्कि अस्तित्व और विश्वसनीयता की लड़ाई है  और यह तय करेगा कि 2020 की कहानी दोहराई जाएगी या बदली जाएगी।


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