बिहार में भ्रष्टाचार बनाम जातीय समीकरण मोदी का एजेंडा और सियासत की नई बिसात
बिहार की सियासत हमेशा से दिलचस्प और अप्रत्याशित रही है। यहां चुनाव केवल नारे, योजनाओं और रैलियों से तय नहीं होते, बल्कि जातीय समीकरण, राजनीतिक विश्वास और नैरेटिव की लड़ाई सबसे अहम भूमिका निभाती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गया दौरा केवल एक चुनावी सभा नहीं बल्कि बिहार के राजनीतिक विमर्श की दिशा तय करने वाला क्षण बन गया। मोदी ने जिस तरीके से भ्रष्टाचार के मुद्दे को केंद्र में रखा और साथ ही आरजेडी के दो विधायकों को एनडीए के मंच पर उतारा, उसने साफ संकेत दे दिया कि भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी एजेंडा सेट कर दिया है और इस बार सीधा निशाना लालू-राबड़ी शासन की विरासत और उस पर लगे भ्रष्टाचार के धब्बे होंगे।
मोदी का भाषण परंपरागत चुनावी वादों से आगे बढ़कर विपक्ष के वैचारिक और नैतिक आधार पर प्रहार करता दिखा। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को अंतिम मुकाम तक पहुंचाना है और इसके लिए कोई भी कार्रवाई के दायरे से बाहर नहीं होना चाहिए। उनका सीधा संदेश था कि छोटे कर्मचारी से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक सब पर कानून बराबर लागू होना चाहिए। यह कथन सामान्य राजनीतिक वक्तव्य भर नहीं था, बल्कि हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों को जोड़कर देखें तो यह आरजेडी और उसके नेतृत्व की तरफ सीधा संकेत था।
इस दौरे का सबसे बड़ा दृश्य वह था जब आरजेडी की नवादा विधायक विभा देवी और रजौली के विधायक प्रकाश वीर एनडीए के मंच पर नजर आए। यह महज़ दो विधायकों की मौजूदगी नहीं थी, बल्कि एक प्रतीकात्मक चोट थी विपक्षी महागठबंधन पर। विभा देवी पूर्व विधायक राजबल्लभ यादव की पत्नी हैं, जिनका नाम विवादित मामलों में रहा है। उनके एनडीए की ओर झुकाव ने आरजेडी को अंदर से असहज किया है। जब विपक्षी INDIA गठबंधन राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में वोटर अधिकार यात्रा निकाल रहा हो और जनता के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा हो, तब ऐसे मौके पर विधायकों का सत्ता पक्ष के मंच पर आना राजनीतिक संदेशों से भरा हुआ है।
भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने की रणनीति बीजेपी की सोची-समझी चाल है। 1990 के दशक से ही बिहार की राजनीति "जंगलराज बनाम सुशासन" की बहस पर टिकी रही है। लालू यादव के शासन को जंगलराज कहकर नीतीश कुमार ने अपने सुशासन की छवि गढ़ी। अब बीजेपी यही नैरेटिव अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश कर रही है। मोदी ने लालू-राबड़ी शासन का जिक्र करते हुए कहा कि पहले बिहार में शाम को निकलना मुश्किल था, शहर अंधेरे में डूबे रहते थे और पलायन ही लोगों का सहारा था। यह बयान दरअसल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को जातीय गोलबंदी के पार जाकर एक बड़े नैरेटिव में बदलने की कोशिश है।
राजनीति की जमीन पर देखें तो विपक्षी महागठबंधन फिलहाल जातीय गोलबंदी के भरोसे मैदान में है। यादव-मुस्लिम समीकरण आरजेडी का स्थायी वोट बैंक है। कांग्रेस और वाम दल सामाजिक न्याय की राजनीति का सहारा लेकर इसमें हिस्सेदारी चाहते हैं। लेकिन जातीय गणित के इस खेल में भी भ्रष्टाचार का मुद्दा आम मतदाता के दिल में जगह बना सकता है। यह बिहार की राजनीति का वह पहलू है जो जाति से ऊपर उठकर गुस्से और नैतिक आक्रोश को जन्म देता है। बीजेपी का भरोसा इसी पर है कि अगर भ्रष्टाचार की बहस तेज हुई तो महागठबंधन की जातीय गोलबंदी ढीली पड़ सकती है।
मोदी ने अपने भाषण में यह भी कहा कि नया कानून लाया जा रहा है, जिसके तहत प्रधानमंत्री हो या मुख्यमंत्री, अगर गंभीर अपराध में गिरफ्तारी के बाद 30 दिन में जमानत नहीं मिली तो उसे पद छोड़ना पड़ेगा। बिल फिलहाल संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया है, लेकिन असल मकसद इसे चुनाव से पहले चर्चा का मुद्दा बनाना है। इस कदम से बीजेपी ने विपक्ष को नैतिक सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है। संसद में यह बिल तुरंत पास हो या न हो, बिहार की जनता के बीच यह चर्चा जरूर जड़ पकड़ चुकी है कि बीजेपी भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए ठोस कदम उठा रही है।
बिहार का राजनीतिक परिदृश्य इस समय असाधारण मोड़ पर है। एक ओर नीतीश कुमार की पार्टी है, जो बीजेपी के साथ मिलकर अपनी सुशासन की विरासत को बचाना और आगे बढ़ाना चाहती है। दूसरी ओर लालू यादव का परिवार और आरजेडी है, जो सामाजिक न्याय और जातीय प्रतिनिधित्व की राजनीति के सहारे जनता को जोड़ना चाहता है। इनके बीच कांग्रेस और वाम दल हैं, जिनकी कोशिश है कि राहुल गांधी की यात्राओं और जनसंवाद के जरिए विपक्षी एकता को ज़मीन पर उतारा जाए। लेकिन इन सबके बीच मोदी का भ्रष्टाचार विरोधी नैरेटिव सीधे जनता की भावनाओं को झकझोर रहा है।
भ्रष्टाचार का मुद्दा बिहार में इसलिए भी ज्यादा असरदार है क्योंकि यहां विकास की रफ्तार अभी भी असमान है। ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी और पलायन की समस्या गहरी है। जनता का मानना है कि अगर शासन ईमानदार हो तो योजनाओं का लाभ नीचे तक पहुंचेगा। बीजेपी इसी उम्मीद को भुनाने की रणनीति बना रही है। यही कारण है कि मोदी ने अपने भाषण में भ्रष्टाचार के साथ-साथ रोजगार, शिक्षा और कानून व्यवस्था का भी जिक्र किया और यह दिखाने की कोशिश की कि भ्रष्टाचार पर प्रहार दरअसल आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने का रास्ता है।
सियासत की इस बिसात में एक और दिलचस्प पहलू है। मोदी ने केवल लालू-राबड़ी ही नहीं बल्कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल पर भी प्रहार किया। इसका मकसद राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को भ्रष्टाचार की एक ही पटरी पर खड़ा करना था। साथ ही पहलगाम हमले और "ऑपरेशन सिंदूर" का जिक्र करके उन्होंने सुरक्षा और राष्ट्रवाद की बहस भी छेड़ दी। बिहार की राजनीति में यह कार्ड हमेशा कारगर साबित हुआ है, खासकर तब जब केंद्र में बीजेपी सत्ता में हो और उसे अपनी राष्ट्रीय छवि के साथ जोड़ना हो।
आने वाले महीनों में बिहार में जो चुनावी माहौल बनेगा, उसमें जातीय गोलबंदी, भ्रष्टाचार का मुद्दा और राष्ट्रीय सुरक्षा तीनों ही आयाम टकराएंगे। विपक्ष का दांव है कि जातीय एकजुटता और सामाजिक न्याय का नैरेटिव उसे वोट दिलाएगा। जबकि बीजेपी का भरोसा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा और मोदी की छवि उसे निर्णायक बढ़त दिला सकती है। नीतीश कुमार का सुशासन मॉडल इस समीकरण में बीजेपी को सहारा देता है और यही गठबंधन की सबसे बड़ी ताकत है।
सवाल यही है कि क्या बिहार की जनता जातीय पहचान से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार के सवाल पर वोट करेगी? क्या मोदी का संदेश जनता के दिल में इतनी गहराई तक उतरेगा कि वह पुराने राजनीतिक समीकरणों को तोड़कर एक नई राह चुन ले? या फिर महागठबंधन की जातीय गोलबंदी एक बार फिर साबित करेगी कि बिहार की राजनीति में जाति ही सबसे बड़ा सच है? इन सवालों के जवाब आने वाले चुनाव में मिलेंगे। लेकिन इतना तय है कि मोदी ने भ्रष्टाचार को केंद्र में रखकर चुनावी विमर्श की दिशा बदल दी है और अब बिहार की सियासत उसी राह पर आगे बढ़ेगी।
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