बिहार चुनाव में मातृ-सम्मान की राजनीति, मोदी का भावनात्मक दांव और बदलती रणनीतिक तस्वीर

  

बिहार चुनाव में मातृ-सम्मान की राजनीति, मोदी का भावनात्मक दांव और बदलती रणनीतिक तस्वीर

पिछले कुछ हफ्तों से बिहार की सियासत राहुल गांधी की वोटर्स अधिकार यात्रा के इर्द-गिर्द घूम रही थी, लेकिन 2 सितंबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक इस चुनावी नैरेटिव की दिशा ही बदल दी। कांग्रेस के एक स्थानीय नेता द्वारा दरभंगा की रैली में उनकी स्वर्गीय मां हीराबेन मोदी के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी को प्रधानमंत्री ने न केवल राजनीतिक हथियार बनाया, बल्कि उसे बिहार की सांस्कृतिक आत्मा और मातृ-सम्मान से जोड़कर विपक्ष को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया। चुनावी राजनीति में भावनाएं हमेशा एक बड़ा कारक रही हैं, और मोदी ने इस तथ्य को बखूबी इस्तेमाल किया। सवाल यह है कि यह भावनात्मक दांव बिहार के जातीय समीकरणों, महिला मतदाताओं की प्राथमिकताओं और एनडीए बनाम महागठबंधन की लड़ाई में किस हद तक निर्णायक साबित हो सकता है।

मोदी ने अपने भाषण में सिर्फ अपनी मां का अपमान नहीं बताया, बल्कि उसे हर बिहारी मां, बहन और बेटी का अपमान करार दिया। बिहार जैसे राज्य में जहां छठ पूजा और नवरात्रि जैसे त्योहार मातृ-शक्ति की आराधना से जुड़े हैं, वहां इस तरह की अपील सीधी जनता के दिल को छूती है। खास बात यह रही कि मोदी ने यह बात बिहार राज्य आजीविका निधि से जुड़े एक महिला-केंद्रित कार्यक्रम में कही, जहां हजारों जीविका दीदियां ऑनलाइन जुड़ी हुई थीं। महिलाओं के मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी को देखते हुए यह कदम रणनीतिक रूप से बेहद सटीक था। 2020 विधानसभा चुनाव में बिहार में महिला मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा था—महिलाएं निर्णायक वोटर बन चुकी हैं। ऐसे में मातृ-सम्मान का मुद्दा उनके बीच भावनात्मक जुड़ाव पैदा कर सकता है।

इतिहास गवाह है कि बिहार की राजनीति में सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रतीक हमेशा निर्णायक रहे हैं। 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक न्याय और पिछड़ों की अस्मिता को राजनीतिक हथियार बनाया। 2015 के चुनाव में आरक्षण के सवाल पर भावनात्मक लहर चली और एनडीए को हार का सामना करना पड़ा। 2020 में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा ने चुनाव को प्रभावित किया था। अब 2025 में मोदी ने मातृ-सम्मान को चुनावी नैरेटिव का केंद्र बना दिया है। यह मुद्दा खास तौर पर ग्रामीण बिहार, ओबीसी, ईबीसी और दलित समाज में गहरी पैठ बना सकता है, क्योंकि वहां परिवार और मां के प्रति सम्मान जीवन मूल्यों का अहम हिस्सा है।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो मोदी का यह दांव विपक्ष की सबसे बड़ी रणनीति को सीधा चुनौती देता है। राहुल गांधी अपनी यात्रा के जरिये गरीबों, दलितों, पिछड़ों और युवाओं को जोड़ने की कोशिश कर रहे थे। तेजस्वी यादव बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दों को उभारकर युवाओं को साधने में लगे थे। लेकिन जैसे ही यह "मां की गाली" वाला विवाद सामने आया, पूरा विमर्श विपक्षी मुद्दों से हटकर मोदी की ओर शिफ्ट हो गया। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और उसके बाद बीजेपी की संगठित मुहिम ने इस नैरेटिव को आग की तरह फैला दिया। कांग्रेस और आरजेडी नेताओं की रक्षात्मक प्रतिक्रिया, जैसे सुप्रिया श्रीनेत का यह कहना कि उन्होंने वीडियो देखा ही नहीं या तेजस्वी यादव की चुप्पी, इस आग को और भड़काने का काम कर गई। राजनीति में कभी-कभी चुप्पी सबसे बड़ा नुकसान करती है, और इस बार विपक्ष ने वही गलती कर दी।

एनडीए की आंतरिक राजनीति के लिहाज से भी यह मुद्दा बेहद अहम साबित हो रहा है। पिछले कुछ महीनों में बीजेपी और जेडीयू के बीच सीट बंटवारे पर तनातनी की खबरें आ रही थीं। चिराग पासवान भी कई बार नीतीश कुमार और जेडीयू पर हमलावर रहे थे। जीतन राम मांझी महागठबंधन की ओर झुकते दिख रहे थे। लेकिन जैसे ही मां का अपमान वाला मुद्दा उभरा, एनडीए के सहयोगियों ने एक सुर में महागठबंधन पर हमला बोला। चिराग पासवान ने इसे बिहार की अस्मिता पर हमला बताया और अपने दलित-पिछड़े वोटरों तक इस संदेश को पहुंचाया। मांझी ने इसे महागठबंधन की नैतिक हार करार दिया, जिससे दलित समाज में बीजेपी के लिए सहानुभूति पैदा हुई। नीतीश कुमार ने भी सार्वजनिक मंच से मोदी के पक्ष में बयान देकर यह संकेत दिया कि इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होगा। यानी जहां तक गठबंधन की एकजुटता का सवाल है, मोदी का यह दांव एनडीए के लिए मजबूती का कारण बन गया है।

महिला वोटरों पर इसका असर सबसे गहरा हो सकता है। बिहार में हाल के वर्षों में महिला मतदाताओं ने ही कई चुनावों का पासा पलटा है। शराबबंदी से लेकर साइकिल योजना और जीविका दीदी कार्यक्रम तक, महिला केंद्रित नीतियां नीतीश कुमार की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत रही हैं। अब मोदी ने उसी महिला आधार को मातृ-सम्मान के नैरेटिव से जोड़ने की कोशिश की है। जब उन्होंने कहा कि "मां हमारे लिए संसार है, स्वाभिमान है," तो यह केवल एक व्यक्तिगत दर्द नहीं बल्कि सामूहिक सांस्कृतिक चेतना को जगाने वाला संदेश था। खास तौर पर ग्रामीण महिलाएं, जिनके जीवन का केंद्र परिवार और मां की छवि होती है, इस अपील से गहराई से प्रभावित हो सकती हैं।

हालांकि राजनीति में हर भावनात्मक मुद्दे की अपनी सीमा भी होती है। सवाल उठता है कि क्या यह नैरेटिव लंबे समय तक टिक पाएगा या विपक्ष बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और महंगाई जैसे मुद्दों पर जनता का ध्यान वापस खींच लेगा। बिहार में बेरोजगारी दर 14% से ऊपर है, जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। प्रवासी मजदूरों की समस्या लगातार बनी हुई है। अगर विपक्ष इन सवालों को धारदार ढंग से उठाए और मोदी की भावनात्मक अपील को "इमोशनल ड्रामा" करार देकर जनता को ठोस मुद्दों पर सोचने के लिए मजबूर करे, तो यह नैरेटिव उतनी मजबूती से काम नहीं कर पाएगा। लेकिन अभी तक विपक्ष ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।

मोदी की राजनीति की खासियत यही रही है कि वे बड़े नैरेटिव सेट करने में माहिर हैं। कभी "चौकीदार" बनकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की छवि बनाई, कभी "गरीब का बेटा" कहकर सहानुभूति हासिल की, तो कभी "मां भारती का सपूत" बनकर राष्ट्रवाद को हवा दी। अब उन्होंने "मां का अपमान" को चुनावी नैरेटिव बना दिया है। बिहार जैसे भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील राज्य में यह दांव निश्चित तौर पर विपक्ष को भारी पड़ सकता है। लेकिन यह भी तय है कि आने वाले हफ्तों में महागठबंधन इस मुद्दे का जवाब देने के लिए कोई नया नैरेटिव लाने की कोशिश करेगा।

अंततः यह चुनाव केवल विकास और वादों की लड़ाई नहीं रह गया है, बल्कि भावनाओं और अस्मिता की जंग बन गया है। बिहार की जनता अपने मतदान के जरिए तय करेगी कि मातृ-सम्मान का यह भावनात्मक कार्ड कितनी दूर तक जाता है। लेकिन फिलहाल इतना तय है कि मोदी ने विपक्ष की पूरी रणनीति को उलट दिया है और चुनावी मैदान में खुद को फिर से केंद्रीय चरित्र के रूप में स्थापित कर दिया है। बिहार की राजनीति में जहां जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक माने जाते हैं, वहां इस बार भावनाओं का यह नया तानाबाना तय करेगा कि सत्ता की कुर्सी पर कौन बैठेगा।


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