मायावती ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया, NDA और विपक्ष में हड़कंप
उत्तर प्रदेश की सियासत में कभी आसमान की बुलंदियों को छूने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती आज एक बार फिर चर्चा में हैं। उत्तर प्रदेश में लगातार कमजोर पड़ते वोट बैंक और सियासी प्रभाव के बीच मायावती ने अब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को अपने लिए एक बड़ा अवसर बनाया है। उन्होंने बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर अकेले दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर सियासी हलकों में हलचल मचा दी है। इस फैसले के साथ ही मायावती ने अपने भतीजे और पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद को बिहार की कमान सौंपकर एक नई रणनीति की शुरुआत की है। सवाल यह है कि क्या मायावती इस बार बिहार के दलित और पिछड़ा वोट बैंक को अपने पाले में लाकर अपनी खोई सियासी ताकत को वापस पा सकेंगी? या फिर, क्या आकाश आनंद के नेतृत्व में बसपा बिहार में वह करिश्मा कर दिखाएगी, जो उत्तर प्रदेश में 2007 में देखने को मिला था? आइए, इस सियासी दांव की हर परत को समझते हैं।
लोकसभा चुनावों में भी बसपा की स्थिति कमजोर हुई है। 2009 में 6.2 फीसदी वोट शेयर के साथ 21 सीटें जीतने वाली पार्टी 2014 में मोदी लहर के सामने कोई सीट नहीं जीत सकी। 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद केवल 10 सीटें मिलीं। 2024 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा का खाता भी नहीं खुला और वोट शेयर घटकर 2.04 फीसदी रह गया। दलित वोट बैंक, जो कभी बसपा की ताकत था, अब आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के चंद्रशेखर आजाद जैसे नए नेताओं की ओर खिसकता दिख रहा है। चंद्रशेखर ने 2024 के लोकसभा चुनाव में नगीना सीट जीतकर मायावती के सामने एक बड़ी चुनौती पेश की है। ऐसे में मायावती के लिए बिहार विधानसभा चुनाव 2025 एक करो या मरो की स्थिति बन गया है।
बिहार में दलित वोट बैंक 17 से 20 फीसदी है, जो सियासी समीकरण बदलने की ताकत रखता है। लेकिन नीतीश कुमार ने 2007-08 में दलित और महादलित की श्रेणी बनाकर इस वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया। पासवान समुदाय में चिराग पासवान और रविदास-महादलित समुदाय में जीतन राम मांझी का प्रभाव मजबूत है। ऐसे में मायावती के लिए इस वोट बैंक में सेंधमारी करना आसान नहीं होगा। फिर भी, बसपा ने बिहार के सीमावर्ती जिलों जैसे बक्सर, गोपालगंज, जहानाबाद और सासाराम में पहले अच्छा प्रदर्शन किया है। इन इलाकों में रविदास समुदाय और कुछ पिछड़ा वर्ग के बीच बसपा की पकड़ रही है। मायावती अब इसी आधार को मजबूत कर एक नया सियासी दांव खेलने की तैयारी में हैं।
आकाश आनंद ने पहले भी दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में पार्टी के लिए जोरदार प्रचार किया था, लेकिन वहां बसपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। पार्टी को 0.58 फीसदी वोट मिले और ज्यादातर उम्मीदवार हजार वोट का आंकड़ा भी पार नहीं कर सके। बिहार में आकाश की आक्रामक रणनीति दलित और पिछड़ा वोट बैंक को एकजुट करने पर केंद्रित है। खासकर रविदास समुदाय, जो बिहार में दलित आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, और कुर्मी-कोयरी जैसे पिछड़ा वर्ग के वोटों को साधने की कोशिश की जा रही है। मायावती ने उत्तर प्रदेश में 2007 में दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण के जरिए सत्ता हासिल की थी। अब बिहार में वह दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक समीकरण को आजमाने की तैयारी में हैं।
बिहार में बसपा ने सभी 243 सीटों को तीन जोन में बांटकर अलग-अलग वरिष्ठ नेताओं को जिम्मेदारी दी है। बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करने के लिए कैडर कैंप, कार्यकर्ता सम्मेलन और जनसभाओं का आयोजन किया जाएगा। आकाश आनंद की रणनीति में डोर-टू-डोर कैंपेन और सोशल मीडिया के जरिए युवा वोटरों को जोड़ना शामिल है। मायावती ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि दलित और अतिपिछड़ा वर्ग को बसपा के साथ लाने का हर संभव प्रयास किया जाए।
बिहार में दलित वोट बैंक कई हिस्सों में बंटा हुआ है। पासवान समुदाय में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और महादलित समुदाय में जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा का प्रभाव है। नीतीश कुमार का महादलित कार्ड भी इस वोट बैंक को अपने पक्ष में रखने में कामयाब रहा है। ऐसे में मायावती के लिए रविदास समुदाय और कुछ अतिपिछड़ा वर्ग को अपने पाले में लाना एक बड़ी चुनौती है। लेकिन अगर बसपा 5-7 फीसदी वोट शेयर भी हासिल कर लेती है, तो यह एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। खासकर इंडिया गठबंधन की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति पर बसपा का दांव भारी पड़ सकता है।
बिहार के सीमावर्ती जिलों जैसे बक्सर, सासाराम, जहानाबाद और गोपालगंज में बसपा का प्रभाव पहले भी देखा गया है। 2020 के लोकसभा चुनाव में बक्सर में बसपा उम्मीदवार को 1.14 लाख, जहानाबाद में 86 हजार और झंझारपुर में 73 हजार वोट मिले थे। इन आंकड़ों से साफ है कि बसपा का एक छोटा लेकिन प्रभावी वोट बैंक इन इलाकों में मौजूद है। मायावती की रणनीति अब इस वोट बैंक को मजबूत कर 10-15 सीटों पर जीत हासिल करने की है। अगर ऐसा होता है, तो यह न केवल बिहार की सियासत में तुरुप का इक्का साबित होगा, बल्कि 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए भी बसपा को एक नया जोश देगा।
पटना में साहू जी महाराज की जयंती पर आयोजित एक सम्मेलन में आकाश ने कहा था, "मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलित, पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग को साथ लेकर जो इतिहास रचा, उसे बिहार में दोहराया जाएगा।" इस बयान से साफ है कि बसपा की रणनीति उत्तर प्रदेश के 2007 मॉडल को बिहार में लागू करने की है। लेकिन बिहार की सियासत उत्तर प्रदेश से अलग है। यहां नीतीश कुमार की जदयू, चिराग पासवान की लोजपा और मांझी की हम पार्टी पहले से ही दलित और अतिपिछड़ा वोट बैंक पर मजबूत पकड़ रखती हैं। ऐसे में बसपा को इन दलों के बीच सेंधमारी करनी होगी।
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