राहुल गांधी से लेकर अजय राय तक, कांग्रेस में अपशब्दों की होड़ क्यों?
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भारतीय राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है, जहां विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस, अपनी बयानबाजी में आक्रामकता की नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेता राहुल गांधी और उनके सहयोगी, जैसे उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ तीखी टिप्पणियों के लिए सुर्खियां बटोर रहे हैं। यह आक्रामकता केवल भाषणों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर पूरे कांग्रेस संगठन पर दिख रहा है। कार्यकर्ताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं तक, सभी राहुल गांधी की शैली को अपना रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह रणनीति 2025 के बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को फायदा पहुंचाएगी, या यह उल्टा पड़कर बीजेपी को मजबूत करेगी? आइए इस मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
कांग्रेस की आक्रामकता का नया दौर
राहुल गांधी ने हाल के वर्षों में अपनी छवि को एक आक्रामक नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। उनके भाषणों में 'चोर', 'जेबकतरा', और 'पनौती' जैसे शब्दों का इस्तेमाल अब आम हो गया है। 2025 में बिहार के ओबीसी सम्मेलन में उन्होंने कहा, "मोदी जी में कोई दम नहीं है," और गुजरात मॉडल को "चोरी का मॉडल" करार दिया। यह सिर्फ राहुल तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने 29 अगस्त 2025 को वाराणसी में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के 'हर परिवार में तीन बच्चे' वाले बयान पर तीखा हमला बोला। राय ने कहा, "आरएसएस में नीचे से ऊपर तक रं**वों की फौज भरी हुई है। भागवत पहले खुद शादी करें।" इस बयान ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया, और बीजेपी ने इसे कांग्रेस की 'निम्न स्तर की राजनीति' करार दिया।इसी तरह, बिहार में 'वोटर अधिकार यात्रा' के दौरान एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने पीएम मोदी की मां के लिए अपशब्द कहे, जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। इस घटना के बाद पटना में बीजेपी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हुई, और गांधी मैदान थाने में केस दर्ज हुआ। इन घटनाओं से साफ है कि कांग्रेस की यह आक्रामकता अब संगठन के निचले स्तर तक पहुंच चुकी है। लेकिन पार्टी ने अपने नेताओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की, जिससे यह संदेश जाता है कि यह रणनीति शीर्ष नेतृत्व के इशारे पर है।
आक्रामकता की रणनीति के पीछे क्या?
कांग्रेस की यह तल्खी बिना किसी रणनीति के नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी बीजेपी और आरएसएस के मजबूत मुद्दों जैसे हिंदुत्व और राष्ट्रीयता को सीधे चुनौती देना चाहती है। इस तरह की बयानबाजी से कांग्रेस अपने समर्थकों, खासकर युवाओं और उन वर्गों को उत्साहित करने की कोशिश कर रही है, जो मोदी सरकार से नाराज हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां कांग्रेस का संगठन कमजोर है, यह रणनीति चर्चा में बने रहने का एक तरीका है।2025 के बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, और कांग्रेस को पता है कि उसके पास खोने को कुछ नहीं है। महागठबंधन में सीट शेयरिंग से पहले ही पार्टी ने उम्मीदवारों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी है, और राहुल गांधी की 'वोटर अधिकार यात्रा' को इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। पार्टी ने 58 पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, और टिकट बंटवारे में उम्र, जाति, और क्षेत्रीय पहचान को प्राथमिकता दी जा रही है। यह सब दर्शाता है कि कांग्रेस बिहार में अपनी मौजूदगी को मजबूत करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है।
सोशल मीडिया और वायरल प्रभाव
आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले बयान नेताओं को तुरंत सुर्खियों में ला देते हैं। अजय राय का मोहन भागवत पर दिया गया बयान हो या राहुल गांधी की 'वोट टोर' और 'कुख्यात चोर' जैसी टिप्पणियां, ये सभी सोशल मीडिया पर तेजी से फैलती हैं। इससे पार्टी को लगता है कि वह एक खास वर्ग तक अपनी बात पहुंचा रही है, जो बीजेपी और मोदी को बिल्कुल पसंद नहीं करता। पिछले दो हफ्तों में राहुल गांधी की तीखी बयानबाजी ने उन्हें लगातार चर्चा में रखा है। लेकिन यह रणनीति कितनी कारगर है, यह बिहार और यूपी के मतदाताओं के रुख पर निर्भर करता है।
बिहार में क्यों फेल हो सकती है यह रणनीति?
बिहार की राजनीतिक संस्कृति में विकास, रोजगार, और सामाजिक समीकरण जैसे मुद्दे हमेशा से प्राथमिकता पर रहे हैं। व्यक्तिगत हमले और गाली-गलौज को यहां के मतदाता, खासकर ग्रामीण और अति पिछड़े वर्ग, नकारात्मक रूप से लेते हैं। राहुल गांधी की टिप्पणियां, जैसे "मोदी जी में कोई दम नहीं" या गुजरात मॉडल पर हमले, व्यक्तिगत हमलों के रूप में देखी जाती हैं, जो गंभीर मुद्दों से ध्यान भटकाती हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने पहले भी राहुल को सलाह दी है कि नीतियों पर हमला करें, न कि व्यक्तिगत टिप्पणियां करें, क्योंकि इससे बैकफायर का खतरा रहता है।2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की ऐसी बयानबाजी उल्टी पड़ चुकी है। उदाहरण के लिए, 2023 में राजस्थान रैली में राहुल की 'पनौती' और 'जेबकतरा' टिप्पणियां बीजेपी के लिए वरदान साबित हुई थीं। बिहार में भी यह रणनीति ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती है, जिसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है।
सहयोगी दलों पर असर
कांग्रेस की यह आक्रामकता महागठबंधन के सहयोगी दलों, जैसे आरजेडी और समाजवादी पार्टी, के लिए भी नुकसानदायक हो सकती है। बिहार में तेजस्वी यादव और यूपी में अखिलेश यादव जैसे नेता कभी भी पीएम मोदी के लिए व्यक्तिगत टिप्पणियां नहीं करते। वे नीतियों पर हमला करते हैं, जिससे उनकी छवि मर्यादित और जिम्मेदार रहती है। तेजस्वी का बिहार में मजबूत प्रभाव है, और कांग्रेस की तल्खी इस गठबंधन के तालमेल को प्रभावित कर सकती है।
क्या है कांग्रेस का भविष्य?
कांग्रेस की यह रणनीति शॉर्ट टर्म में सुर्खियां बटोर सकती है, लेकिन लॉन्ग टर्म में यह पार्टी की छवि को अपरिपक्व और गैर-जिम्मेदार दिखा सकती है। बिहार और यूपी में पार्टी की जमीनी स्थिति पहले ही कमजोर है। ऐसे में आक्रामक बयानबाजी से चर्चा में तो रहा जा सकता है, लेकिन मतदाताओं का विश्वास जीतना मुश्किल है। चुनाव आयोग भी ऐसी भाषा पर नजर रख रहा है, और बीजेपी इसे मुद्दा बनाकर ध्रुवीकरण कर रही है।कांग्रेस ने हाल ही में महागठबंधन में 'बराबर की साझेदारी' की मांग की है, और ड्राइविंग सीट पर आने की कोशिश कर रही है। लेकिन अगर भाषा पर काबू नहीं किया गया, तो यह रणनीति उल्टी पड़ सकती है। लोकतंत्र में आलोचना जरूरी है, लेकिन मर्यादित भाषा से ही विपक्ष अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकता है।
2025 के बिहार और यूपी विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए एक बड़ा टेस्ट होंगे। राहुल गांधी और अजय राय जैसे नेताओं की आक्रामकता से पार्टी चर्चा में तो आ रही है, लेकिन यह मतदाताओं को कितना प्रभावित करेगी, यह समय बताएगा। बिहार के मतदाता नीतियों और विकास पर ध्यान देते हैं, और व्यक्तिगत हमले उनकी प्राथमिकताओं से मेल नहीं खाते। अगर कांग्रेस को इन राज्यों में अपनी जमीन मजबूत करनी है, तो उसे अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा। क्या यह आक्रामकता फायदेमंद साबित होगी, या बीजेपी को और मजबूत करेगी? इसका जवाब 2025 के चुनाव परिणाम देंगे।
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